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समयसार : निश्चय और व्यवहार की यात्रा
मान्यता : परिणाम
लोभ के सन्दर्भ में भी यही बात है। व्यक्ति सोचता है- लोभ के बिना काम चल ही नहीं सकता। यदि लोभ न हो तो विकास की गति मंद हो जाए, समाप्त हो जाए। यह मान्यता बन गई- लोभ अत्यन्त अनिवार्य हैं। हम यह मान लें- सामाजिक प्राणी के लिए क्रोध भी जरूरी है, लोभ भी जरूरी है. भय भी जरूरी है। किसी कवि ने यह लिखा भी है- भय बिन होई न प्रीति। भय के बिना प्रीति नहीं होती। काम तो जरूरी है ही। ये सब भी जरूरी हैं। जब हम इन सबको जरूरी मान लेते हैं तब इनके परिणामों से क्यों घबराएं? क्रोध होगा तो क्रोधजनित समस्याएं भी होगी। इस स्थिति में एक भाई दूसरे भाई का धन हड़पना चाहता है तो उसे बुरा क्यों मानें? जब लोभ जरूरी है तब बुरा मानने की बात ही क्या है? जब लोभ प्रबल बनता है, व्यक्ति सारी सीमाओं को लांघ जाता है। जटिल है लोभ का प्रश्न
यह बात समझ में आ सकती है कि साधना के बिना चेतना को शद्ध बनाया नहीं जा सकता। सोचने के दो कोण हमारे सामने हैं। एक कोण है- साधना के बिना क्रोधाक्रांत चेतना को मिटाया नहीं जा सकता, लोभ से मुक्ति नहीं पाई जा सकती। दूसरा कोण है- क्रोध करना जरूरी है, लोभ जरूरी है। इन दोनों दृष्टिकोणों में बहुत अन्तर है। प्रेक्षा ध्यान के संदर्भ में क्रोध को शान्त करने के कुछ उपाय खोजे गए, उनके प्रयोग भी सफल रहे। भय-मक्ति के उपाय भी खोजे गए। ऐसे अनेक व्यक्ति प्रेक्षाध्यान शिविरों में आए, जिन्हें निरंतर डर सताता था, अकारण ही भय लगता था। ध्यान के प्रयोगों से उनका भय मिट गय। मान समाप्ति के गर भी खोजे गए किन्तु लोभ समाप्ति के गुर खोजने में आज तक सफल नहीं हए हैं। यह सबसे बड़ी समस्या है। इसकी मक्ति के गर की खोज आज भी जारी है। लोभ का प्रश्न बहुत जटिल है। लोभ ऐसी भयंकर बीमारी है, जिसके लिए कोई अमोघ उपचार उपलब्ध नहीं हुआ है। यद्यपि कुछ सूत्र मिले हैं किन्तु उसके प्रयोक्ता भी दुर्लभ हैं। बीमार भी है, दवा भी है पर व्यक्ति दवा लेना नहीं चाह रहा है। व्यक्ति की मनोवृत्ति ही ऐसी बनी हुई है। वह यही चाहता है- इस दवा को न लूं, इसमें ही भला है। 'शुद्ध चेतना __ यह अशुद्ध चेतना की समस्या है, जो सारी समस्याओं को सिंचन दे रही है। हम इस पर सकारात्मक दृष्टि से सोचें। हिन्दस्तान और अशेष विश्व में संतों की एक महान् परम्परा रही है। उसमें हजारों-हजारों व्यक्ति ऐसे हाए हैं जिन्होंने अपनी शद्ध चेतना का अनभव किया है. शद्ध चेतना का
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