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समयसार : निश्चय और व्यवहार की यात्रा भी नहीं मिला किन्तु सबको मृत्यु का साक्षात्कार हो गया। मार्मिक भाषा
जब-जब चेतना अशुद्ध बनती है, ऐसी स्थितियां घटित होती हैं। एक व्यक्ति दूसरे का धन हड़पना चाहता है, एक व्यक्ति दूसरे के धन पर अधिकार करना चाहता है, एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को नीचे गिराना चहता है, मारना चाहता है। ये हिंसा की घटनाएं, अपहरण और अपराध की घटनाएं चेतना की विकृत अवस्था में घटित होती हैं। शुद्ध चेतना की स्थिति में इनकी संभावना नहीं की जा सकती। आचार्य कुन्दकुन्द ने बहुत मार्मिक भाषा में कहा - 'शुद्ध चेतना को जानने वाला शुद्ध चेतना को प्राप्त होता है और अशुद्ध चेतना को जानने वाला अशुद्ध चेतना को प्राप्त होता है
सुद्धं तु वियाणतो सुद्धं चेवप्पयं लहदि जीवो।
जाणतो दु असुद्धं, असुद्धमेवप्पयं लहदि।। आत्मा : दो रूप
हमारी आत्मा के दो रूप बन गए - अशद्ध आत्मा और शद्ध आत्मा। वस्तुतः शुद्ध चेतना के अनुभव के अभाव में सारे अनर्थ चल रहे हैं। शुद्ध चेतना का अनुभव करना अध्यात्म का ही सूत्र नहीं है, समाज का भी महत्त्वपूर्ण सूत्र है, नैतिकता का भी महान् सूत्र है। आज नैतिकता की समस्या विकट बनी हुई है। अनैतिकता का एक जाल सा बिछा हुआ है। एक व्यक्ति ने कहा- महाराज! मैंने दिल्ली में एक मकान बनवाया। उसे कारपोरेशन से प्रमाणित कराना था। क्लर्क ने कहा- मैं आपकी फाइल ठीक कर दूंगा पर एक लाख रुपए लगेंगे। मैंने एक लाख रुपए दे दिए, मकान का नक्शा प्रमाणित हो गया। मैंने पूछा- इतने से कार्य के लिए एक लाख क्यों दिए? उसने कहा- अगर मैं एक लाख नहीं देता तो वह फाइल खराब कर देता। मकान ठीक नहीं है, तुड़वाना होगा। उसमें कई लाख लग जाते। एक लाख में ही काम हो गया। ये समस्याएं क्यों पैदा होती हैं? एक गंभीर रूप से बीमार व्यक्ति हॉस्पिटल में पड़ा है, प्राणान्त होने जैसी स्थिति है किन्तु जब तक प्रवेश की प्रक्रिया पूरी नहीं होती, उसका इलाज संभव नहीं बनता। इस सारी प्रक्रिया के बीच रिश्वत और अनैतिकता का एक चक्र चलता रहता है। अध्यात्म : पहला सूत्र
प्रश्न है- ऐसा क्यों होता है? चेतना के अशुद्ध हुए बिना ऐसा होना संभव नहीं है। यदि व्यक्ति दिन में आधा घण्टा भी शुद्ध चेतना की अवस्था में रहना सीख जाए तो इस स्थिति में परिवर्तन हो सकता है।
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