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ज्ञान खोल देता है जीवन में नए आयाम
ज्ञान और ध्यान-ये दो शब्द बहत प्रचलित हैं। अध्यात्म शास्त्र और सामान्य व्यवहार में ज्ञान को चंचल माना जाता है। ध्यान है मन की एकाग्रता। संस्कृत का प्रसिद्ध सूक्त है-चलं चित्तं ज्ञानं, स्थिरं चित्तं ध्यानम्। जो चंचल है, वह ज्ञान है। जो स्थिर है, वह ध्यान है। ज्ञान और ध्यान में एक दरी स्वीकार की गई। आचार्य कन्दकन्द ने अध्यात्म के परिप्रेक्ष्य में इस दूरी को कम कर दिया। उनकी भाषा में ज्ञान और ध्यान-दो नहीं हैं। जो ज्ञान है, वह ध्यान है। जो ध्यान है, वह ज्ञान है। ज्ञानी कौन?
सारे शास्त्र और ग्रन्थ पढ़ने वाला ज्ञानी नहीं होता। एक व्यक्ति सारे शास्त्रों का ज्ञाता है किन्तु यदि वह रागी है तो ज्ञानी नहीं है। ज्ञानी वह है, जो आत्मा को जानता है। राग-रहित आदमी ही आत्मा को जान सकता है।
परमाणुमित्तयं पि हु, रागादीणं तु विज्जदे जस्स।
ण वि सो जाणदि अप्पाणयं तु, सव्वागमधरो वि।। अध्यात्म में ज्ञानी और अज्ञानी की परिभाषा बदल जाती है। लौकिक भाषा में जो पढ़ा-लिखा है, वह ज्ञानी है। जो अनपढ़ है, वह अज्ञानी है। अध्यात्म की दृष्टि में ज्ञानी वह है, जो राग-रहित है, विराग-सहित है। अज्ञानी वह है, जो राग में लिप्त है।
ज्ञान को मोक्ष का एक कारण माना गया है। कुछ दर्शन क्रियावादी हैं, कर्मकाण्डवादी हैं। कुछ दर्शन ज्ञानवादी हैं। ज्ञानवादी दर्शन का कथन है-ज्ञान ही मोक्ष का साधन है। ज्ञान का होना जरूरी है, क्रिया का मूल्य नहीं है। ज्ञान प्रधान है, कर्म प्रधान नहीं है। आचार्य कन्दकन्द ने कर्म को अस्वीकार नहीं किया किन्तु उन्होंने ज्ञान को बहुत प्रधानता दी। पहचान का माध्यम आज हमारा ज्ञान पदार्थ में अटका हुआ है। वह ज्ञान में प्रतिष्ठित नहीं
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