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समयसार : निश्चय और व्यवहार की यात्रा और यह सोचता है-मैं यह हूं, यह द्रव्य मुझ स्वरूप है, मैं इसका हूं: यह मेरा है। यह पहले भी मेरा था, भविष्य में भी यह मेरा होगा-ऐसा आत्म विकल्प करने वाला व्यक्ति मढ और अज्ञानी है।
अहमेदं एदमहं अहमेदस्स म्हि अत्थि मम एदं। अण्णं जं परदव्वं सच्चित्ताचित्तमिस्सं वा।। आसि मम पुव्वमेदं एदस्स अहंपि आसि पुव्वं हि। होहिदि पुणो ममेदं एदस्स अहंपि होस्सामि।। एयं तु असब्भूदं आदवियप्पं करेदि संमूढो।
भूदत्थं जाणंतो ण करेदि तु असंमूढो।। शरीर और आत्मा को एक मान लेना मूढ़ता है, अज्ञान है। इसी बिन्दु पर प्रेक्षाध्यान और विपश्यना के भेद को समझा जा सकता है। प्रेक्षाध्यान की आधारभित्ति है आत्मवाद। जो व्यक्ति आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते हैं, प्रेक्षाध्यान उनके काम का नहीं है। कायोत्सर्ग मलतः भेद विज्ञान का प्रयोग है। जिस दिन हमारी यह स्पष्ट धारणा होगी - 'आत्मा अलग है और शरीर अलग है' उसी दिन राग की जड़ पर पहला प्रहार होगा। महत्त्वपूर्ण प्रश्न
अनेक बार पछा जाता है कि पहला प्रहार कहां किया जाए? यह बहत महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। एक धनी आदमी कार से जा रहा था। रास्ते में कार खराब हो गई। वह एक मिस्त्री के पास गया, उसे बुलाकर लाया। मिस्त्री ने कार को देखकर कहा - सौ रुपये लंगा, कार ठीक कर दंगा। मालिक ने उसे सौ रुपये दे दिए। मिस्त्री ने एक स्थान पर एक हथौड़ी से चोट की और कार स्टार्ट हो गई। कार के मालिक ने कहा- तमने न्याय नहीं किया। एक हथौड़ी की चोट के सौ रुपये? मिस्त्री बोला - महाशय! चोट का केवल एक रुपया ही है। चोट कहां करनी है, इस बात के हैं निन्यानवें रुपए। महावीर का संकल्प
हमारे सामने राग की विकट समस्या है। उसी के कारण हिंसा, चोरी संग्रह, असत्य, क्रोध आदि-आदि पैदा हो रहे हैं। प्रश्न है - उस मूल समस्या को पकड़ने के लिए पहली चोट कहां पर की जाए? महावीर ने इस समस्या का समाधान दिया - शरीर का व्युत्सर्ग करो। शरीर का
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