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________________ 109 सामंजस्य कैसे बढ़ाएं? आग्रह की समस्या सत्य कितना अनन्त और कितना विराट होता है! जैन-दर्शन की दृष्टि से विचार करें तो एक परमाण के अनन्त पर्याय होते हैं। वर्णमाला का प्रथम अक्षर है 'अ'। यदि पूछा जाए-'अ' के कितने पर्याय होते हैं? जैन दर्शन के अनुसार इसका उत्तर होगा- एक 'अ' के अनन्त पर्याय होते हैं, अनन्त अवस्थाएं होती हैं। हम कितने पर्यायों को जानते हैं? हम दो-चार या दस-बीस पर्यायों को जान लेते हैं और संठ के गांठिए को रखकर ही पंसारी बनने का आग्रह पाल लेते हैं। हम थोड़ी सी बातों को जानकर धर्म के दावेदार या ठेकेदार बन जाते हैं। यह मान लेते हैं-यही सचाई है, अन्य सब झठ है। हमारा यह अज्ञान और आग्रह सबसे बड़ा विघटनकारी तत्व है। सामाजिक बिखराव का भी यह बहुत बड़ा कारण है। परिवार और समाज में आग्रह बहत चलता है। जो बात पकड़ ली जाती है, उसके सन्दर्भ में लोग दूसरी बात सुनने को तैयार ही नहीं होते। यह आग्रह की समस्या है। अर्थहीन रूढ़िवाद क्यों? इस वैज्ञानिक युग में भी अनेक रूढ़ियां चल रही हैं। इन सारी रूढ़ियों के चलने का कारण क्या है? रूढ़ि का अपना एक अर्थ होता है, अपने समय की एक उपयोगिता होती है। किन्तु देश-काल के परिवर्तित हो जाने पर भी उस लीक को पीटते रहना कहां तक संगत हो सकता है? जिस परम्परा या प्रणाली की उपयोगिता समाप्त हो गई, क्या उससे चिपके रहना उचित है? अर्थहीन परंपराओं से चिपके रहने का अर्थ है रूढ़ि। इस अर्थहीन रूढ़िवाद से काफी समस्याएं पैदा हो जाती हैं। व्यक्ति रूढ़ियों से इतना जकड़ा हुआ है कि उसका चिंतन सुलझा हुआ नहीं रहता। वह यह नहीं सोच पाता-देश काल के बदल जाने पर परंपरा को भी बदल देना चाहिए। इसका कारण है आग्रह। आज बहुत सारी ऐसी स्थितियां हमारे सामने हैं। यह मृत्युभोज की परंपरा, दहेज का प्रचलन कभी रहा होगा, किसी समय इसकी उपयोगिता को माना गया होगा पर आज इन्हें मात्र रूढ़ि ही माना जाता है। लेकिन पकड़ इतनी है कि समाज के मखिया लोग भी इसे बदलना नहीं चाहते, छोड़ना नहीं चाहते। संदर्भ आत्मा का धर्म के क्षेत्र में भी बहत सारे आग्रह पल रहे हैं। एक विचार को पकड़ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003072
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1991
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size6 MB
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