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________________ गृहस्थ जीवन का आकर्षण क्यों ? | ९७ पदार्थ ही सब कुछ लगते हैं। जब चेतना का रूपान्तरण होता है, प्रियता की चेतना बदलती है, विवेक की चेतना जागती है तब सारे मूल्य निर्मूल्य बन जाते हैं । यह मूल्यों का संसार है । एक अवस्था में आदमी एक चीज को मूल्य देता है और दूसरी अवस्था में उसे निर्मूल्य बना देता है। मूल्य का मानदण्ड पूज्य कालूगणी रुग्ण अवस्था में थे। अनेक साधु बहुत दूर से धूल की पोटलियां बांध-बांध कर लाते । एक दिन कालूगणी ने कहा-हमारे लिए धूल का भी कितना मूल्य है ? साधु कितने श्रम से दूर-दूर से धूल ला रहे हैं ? मेवाड़ में धूल का मिलना कितना मुश्किल है। एकदम शुद्ध बालू, चांदी जैसी चमकती हुई रेत का मेवाड़ में जितना मूल्य है उतना थली प्रदेश में नहीं है । थली में रेतीले टिब्बे बहुत हैं और वहां ऐसी बालू बहुत ज्यादा सुलभ है । मेवाड़ में वह दुर्लभ है इसलिए मेवाड़ में दूर से रेत लाना भी मूल्यवान् कार्य बन गया । मूल्य देना या मूल्य न देना--- दोनों सापेक्ष हैं। एक अवस्था में गृहवास, धन और पदार्थों का बहुत मूल्य है किन्तु जब चेतना बदल जाती है, विवेक जाग जाता है, ये सब बिलकुल फीके-फीके लगने लग जाते हैं। ये दोनों प्रकार की चेतनाएं, दोनों प्रकार की विचारधाराएं, दोनों प्रकार के चिंतन हमारे सामने रहे हैं। जीवन की सार्थकता ब्राह्मण ने नमि राजर्षि से कहा— राजन् ! आप घोराश्रम-गृहस्थाश्रम को छोड़कर संन्यास आश्रम की इच्छा कर रहे हैं, यह उचित नहीं है । आप यहीं रहकर पौषध, अणुव्रत, तप आदि व्रतों का पालन करें । घोरासमं चइत्ताणं, अन्नं पत्थेसि आसमं । इहेव पोसहरओ, भवाहि मणुजाहिवा ।। नमि राजर्षि ने कहा- तुम गृहस्थ की भूमिका को ही जानते हो किन्तु स्वाख्यात धर्म की भूमिका से तुम परिचित नहीं हो । मैं जिस महान् स्थिति में जा रहा हूं उसका मूल्य तुम नहीं जानते। मासे मासे तु जो बालो, कुसग्गेण तु भुंजए। न सो सुयक्खाय धम्मस्म कलं अग्घइ सोलसिं॥ . राजर्षि ने कहा-अविवेकी मनुष्य मास-मास की तपस्या के अनंतर कुश की नोक पर टिके उतना सा आहार करे तो भी वह स्वाख्यात धर्म की सोलहवीं कला को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003071
Book TitleMukta Bhog ki Samasya aur Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1999
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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