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आध्यात्मिक सुख । ८७ जो बात अस्थि-मज्जा तक पहुंच जाती है, फिर वह विस्मृत नहीं हो सकती। सुषुम्ना और सहस्रार-ये दो शक्तिशाली केन्द्र हैं। अनुभवी साधकों में इन्हें बहुत महत्त्व दिया है। जब यह श्रद्धा पैदा हो जाती है कि आध्यात्मिक सुख ही बड़ा सुख है और यह उस अवचेतन मन के स्तर पर पहुंच जाती है तब अध्यात्म के स्पंदनों का, चैतन्य के स्पंदनों का, धनात्मक विद्युत् या प्राण ऊर्जा के स्पंदनों का अनुभव होने लगता है। श्रद्धा स्थिर होती है, गति बदल जाती है । धर्म श्रद्धा और अनौत्सुक्य
भगवान् महावीर से पूछा गया—“धर्म श्रद्धा से क्या होता है ? उसका परिणाम क्या होता है ?" भगवान् ने कहा-“धर्म श्रद्धा से अनौत्सुक्य पैदा होता है । उत्सुकता समाप्त हो जाती है।" जिन स्पंदनों के प्रति, पौगलिक स्पंदनों के प्रति उत्सुकता थी, वह धर्म की श्रद्धा जागने से मिट जाती है। सारी उत्सुकता समाप्त हो जाती है। उत्सुकता समाप्त होते ही अध्यात्म के स्पंदनों का अनुभव होने लग जाता है। अध्यात्म के स्पंदनों का अनुभव करने का एक उपाय है काम-केन्द्र की ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी बनाना। संकल्प करें और अपान देश के स्नायुओं को ऊपर की ओर उठाएं । यदि यह प्रयोग १५-२० मिनट या आधा घंटा तक चलता है तो आध्यात्मिक सुख के स्पंदन प्रारम्भ हो जाते हैं। मार्ग है अध्यात्म
जीभ की विद्युत् है—ऋणात्मक और सिर की विद्युत् है--धनात्मक । जीभ को तालु से लगाएं । अपूर्व आनन्द का अनुभव होगा। आत्मरति जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाएगी।
ऋणात्मक और धनात्मक विद्युत् का योग और भावना का प्रयोग- ये आध्यात्मिक स्पंदन पैदा करते हैं । जैसे-जैसे ये स्पंदन गहरे होते जाते हैं, वैसे-वैसे पौद्गलिक स्पंदन छूटते जाते हैं । ऐसा लगने लगता है कि मानो लोह छूट रहा है और स्वर्ण मिल रहा है, झोंपड़ी छूट रही है और प्रासाद मिल रहा है।
यह विषय तर्क का नहीं है, अनुभव का है। तर्क के द्वारा यहां तक नहीं पहुंचा जा सकता। चाहे बृहस्पति भी आ जाएं, वे भी अपनी प्रखर प्रज्ञा से इस तथ्य को समझा दें, फिर भी श्रोता बिना अभ्यास के वहां तक नहीं पहुंच सकता । यह अनुभव का मार्ग है । अभ्यास करते जाओ, वहां तक पहुंच जाओगे। अभ्यास-काल में अनेक अवरोध आ सकते हैं, रुकना भी पड़ता है, पीछे भी हटना होता है, फिर भी यही एकमात्र मार्ग है अध्यात्म-सुख के अनुभव का।
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