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८८ । मुक्त भोग की समस्या और ब्रह्मचर्य अनुभव जागे
समूचे विश्व के पौद्गलिक सुखों को हम राशिकृत कर लें फिर भी वे शुद्ध चैतन्य के स्पंदनों से उत्पन्न सुख की तुलना में नगण्य है। अध्यात्म के सुखों की बात सुनने में अच्छी लग सकती है और साथ ही साथ चित्त में संशय भी पैदा कर सकती है, उत्साह को उत्पन्न भी कर सकती है और नाना प्रकार के विकल्पों को उभार भी सकती है। ये सारी स्थितियां हैं। ये होती हैं। भाषा के माध्यम से कहने वाला, चाहे फिर वह केवली हो, तीर्थकर या सामान्य साधक, दोनों स्थितियों से बचा नहीं सकता। सुनने वाले कुछ लोगों का मन प्रेरणा से भरेगा तो कुछ लोगों का मन संशय से व्याप्त होगा। दोनों बातें हो सकती हैं। प्रेरणा पाकर चलने वाले का भी एक ही मार्ग है-अनुभव का और संशय को मिटाने का भी एक ही मार्ग हैअनुभव का। इसके सिवाय कोई रास्ता नहीं है। साधना का एकमात्र प्रयोजन यही है कि वे स्पंदन पकड़ में आ जाएं, रास्ता खुल जाए और यह स्पष्ट अवभाषित हो कि ऐसा भी सुख है जिसका बाहर से कोई नाता नहीं है।
जो अध्यात्म के स्पंदनों को जानता है, वह भीतर के स्पंदनों को जानता है और जो बाहर के स्पंदनों को जानता है वह भीतर के स्पंदनों को जानता है। दोनों को जानकर ही वह भीतर के स्पंदनों के प्रति अनुरक्त हो जाता है। वह साक्षात् कर लेता है कि ये स्पंदन अधिक सुखद, अधिक निरपवाद, अधिक लाभदायी और अधिक आनन्दमय हैं । वह उसी ओर चल पड़ता है।
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