SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८६ / मुक्त भोग की समस्या और ब्रह्मचर्य पड़ता है । सुषुम्ना से चलना और सहस्रार तक पहुंचना – इतना सा करना है I रास्ता छोटा है। केवल चढ़ाई ही चढ़ाई है। आरोहण ही आरोहण है । आवश्यक है श्रद्धा इस आरोहण में श्रद्धा का होना अत्यन्त आवश्यक है। हम श्रद्धा को समझें । श्रद्धा क्या है ? जब चेतना सहस्रार केन्द्र में जाती है; उसमें लीन हो जाती है, उस चेतना का काम नाम है— श्रद्धा । श्रद्धा तीव्र लालसा है, तीव्र प्यास है । इतनी तीव्र प्यास है कि वह समुद्र के समूचे पानी को पी लेने पर भी नहीं बुझती । इस गहरी प्यास का नाम है श्रद्धा । यह अवचेतन मन के स्तर पर होती है । 1 उपासक के लिए एक विशेषण आता है- 'अठ्ठिमिजपेम्पाणुरागरत्ते' । उपासक या श्रावक वह होता है, जिसकी अस्थि-अस्थि और मज्जा मज्जा में धर्म का अनुराग प्रविष्ट हो जाता है । अस्थि और मज्जा में धर्म कैसे प्रविष्ट होता है—यह एक प्रश्न है । क्या अस्थि और मज्जा के साथ श्रद्धा और भावना का कोई संबंध है। अस्थि का एक अर्थ है-हड्डी और दूसरा अर्थ है - पृष्ठरज्जु । मज्जा का अर्थ भी मस्तिष्क और पृष्ठरज्जु का वह धूसर भाग है जो बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। श्रद्धा या भावना का वहां तक पहुंचना ही धर्म के अनुराग का अस्थि मज्जा में प्रवेश करना है । यहां तक श्रद्धा के पहुंच जाने पर वह दृढ़ हो जाती है । वही फलवती होती है । - मज्जा वात बने 1 अनुराग अस्थि जब तक श्रद्धा अवचेतन मन तक नहीं पहुंचती, उसका कोई परिणाम नहीं होता । आज व्यक्ति एक दिशा में श्रद्धा करता है, एक ओर आकर्षण करता है और दूसरे दिन उसकी श्रद्धा का प्रवाह किसी दूसरी ओर जाता है तो वह श्रद्धा नहीं है । इसे ही यदि श्रद्धा मान लिया जाए तो इससे बढ़कर और झूठ क्या हो सकता है ? एक व्यक्ति एक स्त्री के प्रति मोहित हो गया । उसने उसे कुछ वशीकरण प्रयोग सिखा दिया । वह स्त्री उसके प्रति अनुरक्त हो गयी । अब उस व्यक्ति के सिवा कोई दूसरा व्यक्ति दीखता ही नहीं था। वह उसके प्रति पागल हो गयी । घरवाले चिन्तित हुए। एक मंत्रविद् को बुलाया । उसने घरवालों से कहा- “ इसका अनुराग अस्थि-मज्जा तक पहुंच गया है। जब तक उसका परिशोधन नहीं होगा तब तक वह व्यक्ति ही इसे दीखता रहेगा, वह इसके मन से हटेगा नहीं ।" मंत्रविद् ने उस स्तर तक परिशोधन किया । अस्थि - मज्जा से उस अनुराग को निकाला और वह स्त्री पूर्ण स्वस्थ्य हो गयी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003071
Book TitleMukta Bhog ki Samasya aur Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1999
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy