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________________ ८४ । मुक्त भोग की समस्या और ब्रह्मचर्य किसी में वासना के स्पंदन, काम के स्पंदन होते हैं। काम के स्पंदनों को समाप्त करने के लिए प्रतिपक्षी स्पंदन पैदा करने हैं। एक है 'पररसी' स्पंदन और एक है 'आत्मरसी' स्पंदन। एक है-विषय-रमण और एक है—आत्म रमण । हमारी ऊर्जा, विद्युतशक्ति, प्राणशक्ति जो मस्तिष्क में होती है वह जब नीचे की ओर प्रवाहित होती है तो काम के स्पंदन होते हैं । वे स्पंदन सुख की अनुभूति कराते हैं। सुख का अनुभव स्पंदनों में है, किसी वस्तु में नहीं। ये स्पंदन अन्य अपकरणों के द्वारा भी पैदा किए जा सकते हैं। दोनों में कोई अन्तर नहीं आएगा। ऋण विद्युत : धन विद्युत् ____ कामकेन्द्र की ओर प्रवाहित होने वाली ऊर्जा से काम के स्पंदन पैदा होते हैं । उनमें सुख की अनुभूति होती है। मनुष्य सुख मानता है। अब उन स्पंदनों के प्रतिपक्षी स्पंदन पैदा करने के लिए हमें उल्टा चलना पड़ेगा। हमें प्रतिसंलीनता करनी पड़ेगी। मस्तिष्कि की धन-विद्युत् है, पोजेटिव विद्युत् है और कामकेन्द्र की ऋण-विद्युत् है, नेगेटिव विद्युत् है । सहस्रार चक्र में जब प्राणधारा का प्रवाह चलेगा तब आत्मरसी स्पंदन पैदा होंगे। उन स्पंदनों से जो सुख की अनुभूति होगी वह अपूर्ण होगी। इसकी तुलना में कामकेन्द्र के स्पंदनों से होने वाली सुख की अनुभूति नगण्य है। जो व्यक्ति उस अनुभूति तक पहुंच जाता है, वह वहां से नीचे उतरना नहीं चाहता । घंटों तक सुख की अनुभूति में लीन रहता है । वहां से हटने के बाद भी विषाद नहीं होता। उसे उल्टा अधिक आनन्द, अधिक उल्लास और अधिक शक्ति का अनुभव होता है। ___ एक प्रश्न है—सुख क्या है ? ऋण विद्युत् का धन विद्युत् के साथ जो योग है, वह सुख है । यह सामान्य सुख नहीं, आध्यात्मिक सुख है । कामकेन्द्र की निषेधात्मक शक्ति है । उसका योग जब विधायक शक्ति के साथ होता है तब आध्यात्मिक सुख उत्पन्न होता है । तब विचित्र प्रकार के स्पंदन पैदा होते हैं। विद्युत् का परिवर्तन - हमारे चैतन्य का, ज्ञान का केन्द्र है नाड़ी-संस्थान। यह समूचे शरीर में परिव्याप्त है। किन्तु पृष्ठरज्जु के निचले सिरे से मस्तिष्क तेक का स्थान चैतन्य का मूल केन्द्र है । आत्मा की अभिव्यक्ति का यही स्थान है। संवेदन, प्रतिसंवेदन, ज्ञान-- सारे यहीं से प्रसारित होते हैं। शक्ति का भी यही स्थान है। ज्ञानवाही और क्रियावाही तंतुओं का यही केन्द्रस्थान है। मनुष्य ऊर्जा को अधोगामी करना ही जानता है, ऊर्ध्वगामी करना नहीं जानता । केवल दिशा का ही परिवर्तन हुआ कि जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003071
Book TitleMukta Bhog ki Samasya aur Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1999
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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