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आध्यात्मिक सुख / ८१
तक सारे प्राणों के स्पंदन होते हैं। पांच इन्द्रियों के स्पन्दन होते हैं । मन के स्पंदन और वाणी के स्पंदन होते हैं । काया— शरीर के स्पंदन होते हैं । इस प्रकार प्राण दस हैं। सबके अपने-अपने स्पंदन हो रहे हैं । इन्हीं के आधार पर हमारे जीवन का यह ढांचा चल रहा है ।
मूर्च्छा के स्पंदन
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आठ प्रकार के कर्म हैं। आठ प्रकार के स्पंदन हैं। उनमें मोह के स्पंदन सबसे अधिक हैं। आवेश, उत्तेजना, भय, शोक, विषाद, घृणा, विकार, काम-वासना – ये सारे मूर्च्छा के स्पंदन हैं, मोह के स्पंदन हैं। ये निरन्तर होते रहते हैं । ये कभी विराम नहीं लेते । ये अपने-आप कभी रुकते भी नहीं । इनके आधार पर कभी सुख का अनुभव होता है, कभी दुःख का अनुभव होता है। इसमें कुछ स्पन्दन ऐसे होते हैं जो सुख का अनुभव कराते हैं और कुछ स्पन्दन ऐसे होते हैं जो दुःख का अनुभव कराते हैं ।
क्या है
सुख दुःख
सुख-दुःख क्या है, इसे समझना होगा। स्पंदनों के साथ मन का योग सुख और स्पंदनों के साथ मन का योग ही दुःख है । स्पन्दनों के साथ यदि मन का योग नहीं होता है तो न सुख का अनुभव होता है और न दुःख का अनुभव होता है । प्रिय स्पन्दनों के साथ मन का योग होता है तो सुख और अप्रिय स्पन्दनों के साथ मन का योग होता है तो दुःख । सुख-दुःख की जो कल्पना है वह मन के योग के साथ होती है । मन को न जोडें और स्पन्दन होते रहें, कोई बात नहीं है । न सुख होगा और न दुःख ।
निमित्तज हैं स्पंदन
स्पन्दन निमित्त हैं । प्राण के स्पंदन निमित्त से उत्पन्न होते हैं और कर्म के स्पन्दन भी विपाक में निमित्त से ही आते हैं । स्पन्दन के निमित्त अनेक हैं । उनमें एक निमित्त है - चिंतन । चिंतन करते हैं, स्पन्दन प्रारंभ हो जाते हैं । स्मृति होती है, स्पन्दन होने लग जाते हैं। एक घटना है। चार आदमी बुढ़िया के घर आए । बुढ़िया ने उन्हें छाछ पिलाई। चारों चले गए। बुढ़िया ने देखा कि छाछ के बर्तन में सर्प मरा पड़ा है । बुढ़िया ने सोचा - बेचारे चारों मर गए होंगे। कुछ वर्ष बीते । वे चारों पथिक पुनः उसी बुढ़िया के यहां ठहरे । बुढ़िया ने उन्हें आश्चर्य से देखा । पूछने पर बुढ़िया ने घटित घटना बता दी। चारों के स्मृति कोष्ठ जाग गए। उनकी
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