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आध्यात्मिक सुख
द्रव्य परिणामिनित्य होता है। यदि वह नित्य ही हो तो हमें कुछ करने की जरूरत ही नहीं होती । उसमें परिवर्तन तभी होता है जब कि परिवर्तनशीलता है । कुछ उत्पन्न होता है और कुछ नष्ट होता है । आत्मा भी परिणामिनित्य है । उसमें दो प्रकार के स्पंदन होते हैं । प्रत्येक पदार्थ में दो प्रकार के स्पंदन होते हैं। एक है स्वाभाविक स्पंदन और दूसरा है निमित्तज स्पंदन । चैतन्य का स्पंदन स्वाभाविक होता है । यह निरंतर होता रहता है। दूसरा स्पंदन निमित्तों से उत्पन्न होता है । निमित्त अनेक हैं । एक निमित्त है— कर्म । कर्म से स्पंदन उत्पन्न होता है । दूसरा निमित्त है— प्राण । प्राण से स्पंदन उत्पन्न होते हैं ।
स्पंदनों का समुद्र
इस प्रकार हमारा अस्तित्व तीन प्रकार के स्पंदनों से घिरा हुआ है— चैतन्य का स्पंदन, कर्म का स्पंदन और प्राण का स्पंदन | स्पंदनों का समुद्र तरंगित है । ऊर्मियां ही ऊर्मियां । एक स्थिर अंश, पर वह भी पूरा अस्थिर । एक नित्य अंश, पर वह भी पूरा अनित्य । इतना परिणमन है कि चारों ओर स्पंदन ही स्पंदन दिखाई दें रहा है । उस स्पंदन में अस्पंदित अंश को खोज पाना भी सरल नहीं है ।
चैतन्य के स्पंदन सूक्ष्मतम स्पंदन हैं । कर्म के स्पंदन या सूक्ष्म शरीर के स्पंदन सूक्ष्मतर हैं | प्राण के स्पंदन सूक्ष्म हैं स्थूल शरीर के स्पंदन स्थूल हैं । हम सबसे पहले इन स्थूल स्पंदनों को ही पकड़ते हैं। इनका ही हमें अनुभव होता है। इनको ही हम सुख या दुःख मानकर चलते हैं। स्थूल शरीर में होने वाले स्थूल स्पंदन ही हमारे लिए सुख-दुःख बने हुए हैं। उनसे परे जाकर सुख की कल्पना करना हमारे लिए शक्य भी नहीं है, संभव भी नहीं है। जब तक व्यक्ति चेतना के स्थूल स्तर पर जीता है तब तक यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि इसके परे भी कोई सुख हो है
सकता
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श्वास के स्पंदन होते हैं। उनसे विद्युत् उत्पन्न होती है । जीवनी-शक्ति के स्पंदन होते हैं, हम जीवित रहते हैं । हमारे जीवन की नियामक प्राणशक्ति है - आयुष्यप्राण । उसके भी स्पंदन होते हैं । जब तक ये स्पंदन होते रहते हैं तब
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