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ऊर्जा की ऊर्ध्वयात्रा / ७९ यह घटित होने पर ज्योतिपंज के साथ साधक का संपर्क स्थापित हो जाता है । वह रश्मि जो 'मैं हूं'--इतनी सी प्रतीत होती थी वह ज्योतिपुंज में मिल जाती है और तब 'मैं हं' बदल जाता है और केवल 'है' शेष रह जाता है । 'मैं' की बात समाप्त हो जाती है । जो रश्मियां बिखरी पड़ी थीं, जो एक जालीदार ढक्कन से छन-छनकर बाहर फैल रहीं थीं, वे सारी रश्मियां सिमटकर ज्योतिपुंज में लीन हो जाती हैं। उस समय ज्योतिपुंज के साक्षात्कार का प्रश्न भी समाप्त हो जाता है। वहां कौन ज्योतिपुंज और कौन मैं—यह भेद मिट जाता है। सब कुछ ज्योतिर्मय बन जाता है।
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