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५६ । मुक्त भोग की समस्या और ब्रह्मचर्य है, साधक ऊपर की ओर उठने लगता है। वहां तीन प्रशस्त लेश्याओं—तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या का क्षेत्र आता है। एक ज्योतिर्मय प्रकाश शुरू होता
चेतना का स्थान
आयुर्वेद के ग्रन्थों में दो महत्त्वपूर्ण वाक्य हैं• हृदयं चेतनास्थानम्-हृदय चेतना का स्थान है। • तत्परमौजस:-चेतना के बाद ओज का स्थान है।
ये दोनों चेतना के परम स्थान हैं। यहां से ऊर्ध्वयात्रा शुरू होती है। लेश्या धर्म की बन जाती है। तेजोलेश्या ज्योतिर्मय पुरुष, चैतन्य पुरुष की यात्रा है। उस समय आर्त्त-रौद्र ध्यान समाप्त हो जाते हैं। धर्म ध्यान का प्रारंभ हो जाता है। साधक पद्यलेश्या पर पहुंच जाता है । पद्मलेश्या का रंग पीला होता है। आचार्य का ध्यान विशुद्धि चक्र पर किया जाता है। वहां पीले रंग की कल्पना की जाती है । चेतना की यात्रा आगे बढ़ी है, साधक आज्ञाचक्र पर लाल रंग के साथ ध्यान करता है। वहां का रंग है लाल । साधक और आगे बढ़ता है। यह शुक्ललेश्या का स्थान है। यहां सब कुछ सात्त्विक ही सात्त्विक । प्रकाश ही प्रकाश और कुछ भी नहीं। चित्त की सारी वृत्तियां शांत हो जाती हैं। चित्तवृत्तियों का उभार शांत हो जाता है, कलुषताएं शांत हो जाती हैं। शेष रहती है निर्मलता। प्रवेश द्वार है धर्म लेश्या ___ यह ऊर्जा की ऊर्ध्वयात्रा है। धर्मलेश्या प्रवेश-द्वार है। यह नहीं भूलना चाहिए कि धर्मलेश्या में प्रवेश कर देने पर अधर्म लेश्याएं सर्वथा समाप्त हो जाती हैं । वे समाप्त होती हैं, किन्तु एक साथ समाप्त नहीं होती।
हमने अतीत में वृत्तियों का, आस्रवों का इतना संचय कर रखा है कि ऊर्ध्वयात्रा करने पर भी उनका दबाव पड़ता है । वृत्तियां बार-बार उभरती हैं, दबाव पड़ता है, किन्तु परिणाम कुछ भी नहीं आता।
कोई वृत्ति जागी । स्पन्दन हुआ। तरंगे चली और कामकेन्द्र के पास पहुंची। कोई ऊर्जा नहीं मिली तो लौट गयीं। कोई परिणाम नहीं हआ। बेकार हो गयीं। ऊर्जा मिलने पर वह वृत्ति का काम करती है, अन्यथा आती है और बिना फल दिए लौट जाती है। जब हमने ऊर्जा का सारा प्रवाह ऊपर की ओर कर दिया, ऊर्जा का भण्डार जो नीचे था वह खाली कर दिया और ज्ञानकेन्द्र में भर दिया, फिर कोई भी वत्ति परिणाम नहीं दे सकती । वत्तियों की तरंगें आती हैं और लौट जाती हैं. व्यक्ति
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