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ऊर्जा की ऊर्ध्वयात्रा / ७३
हठयोग ने उन्हीं तथ्यों का छह चक्रों के आधार पर प्रतिपादन किया है। दोनों की अपनी-अपनी परिभाषाएं हैं । यदि दोनों को परिभाषाओं से मुक्त कर दें तो तथ्यप्रतिपादन अक्षरश: मिल जाता है । हठयोग तीन चक्रों को ऊपर और तीन चक्रों को नीचे मानता है। मूलाधार, स्वाधिष्ठान और मणिपूर-ये तीन चक्र हृदय से नीचे हैं और अनाहत, आज्ञा और सहस्त्रार—ये तीन चक्र हृदय से ऊपर होते हैं। - जब मूलाधार चक्र सोया रहता है तब उत्तेजना बढ़ती है। स्वाधिष्ठान चक्र सोया रहता है तब आदमी कामुक होता है । मणिपुर चक्र सोया रहता है तब आदमी में ईर्ष्या, घृणा, क्रूरता के भाव पैदा होते हैं । तीन अप्रशस्त लेश्याओं के परिणामों से इनकी तुलना करें, सारी बातें ज्यों की त्यों मिल जाएंगी।
तीन अप्रशस्त लेश्याओं के ये ही स्थान हैं। यहां से चेतना की अधोयात्रा प्रारंभ होती है। सारी प्राण ऊर्जा का प्रवाह नीचे की ओर होने लग जाता है। कल्पना लोक पुरुष की
एक रूपक है । जैन आचार्यों ने लोकपुरुष की कल्पना की। उन्होंने लोक को पुरूष के रूप में चित्रित किया। लोकपुरुष के तीन भाग हैं-ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक
और अधोलोक । ऊर्ध्वलोक में हैं देवता, मध्यलोक में हैं मनुष्य और अधोलोक में हैं नैरयिक । मोक्ष ऊर्ध्वलोक में हैं। हृदय से हमारा ऊर्ध्वलोक प्रारंभ होता है। ऊर्ध्वलोक जहां देवताओं का निवास है, वहां सिद्ध जीवों का निवास है, मुक्तात्माओं का निवास है । मध्यलोक का निवास है । कटि से नीचे का भाग अधोलोक है। यह नरकावास है।
हृदय से ऊपर धर्म लेश्याओं का स्थान है और हृदय से नीचे अधर्म लेश्याओं का स्थान है। परिवर्तन का सूत्र : ऊर्ध्वयात्रा
हम देह प्रेक्षा में हृदय से प्रेक्षा आंरभ करते हैं। यह भी सकारण है। प्राणऊर्जा की यात्रा सबसे पहले ऊर्ध्व होनी चाहिए। उसका पूर्ण विकास होने पर फिर अधोयात्रा में कोई खतरा नहीं होता। देवता किसी कारणवश नीचे आता है तो कठिनाई नहीं होती । उसकी तो मात्र एक यात्रा है। यदि चेतना नीचे ही उलझी रह जाती है तो बड़ी कठिनाई पैदा हो जाती है। यदि हम उस ज्योति-पुंज का, परम तत्त्व का, पारमार्थिक तत्त्व का, परम सत्ता का साक्षात्कार चाहते हैं तो ऊर्ध्वयात्रा करनी होगी। प्राण-ऊर्जा की ऊर्ध्वयात्रा हुए बिना कुछ भी नहीं होता। निम्न प्रकार की वृत्तियों से छुटकारा नहीं हो सकता। व्यक्ति कितना ही सुने, माने और व्यवहार
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