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________________ ७२ / मुक्त भोग की समस्या और ब्रह्मचर्य प्रियता, अप्रियता की अनुभूतियां उत्पन्न होती हैं । वेदना के आने पर व्याकुलता, वेदना को नष्ट करने की चेष्टाएं, क्रूरता, ईर्ष्या, घृणा - आदि के स्पंदन कामकेन्द्र के आसपास अनुभूत होते हैं । वे यहीं उभरते हैं । हमारे कामकेन्द्र की चेतना के आसपास ही वे स्पंदन क्रियान्वित होते हैं । I प्राणशक्ति हमारी एक शक्ति है— प्राणशक्ति । एक ही प्राणशक्ति अनेक रूपों में अभिव्यक्त होती है । उसके दस रूप बन जाते हैं । इन्द्रियों के साथ जब प्राण ऊर्जा काम करती है तो पांच प्राण बन जाते हैं—स्पर्शन इन्द्रिय प्राण, रसन इन्द्रिय प्राण, घ्राण इन्द्रिय प्राण, चक्षु इन्द्रिय प्राण और श्रोत्र इन्द्रिय प्राण । वही प्राण-धारा जब मन के साथ जुड़ती है तब मनोबल बन जाता है। जब वह वचन के साथ काम करती है तब वचनबल बन जाता है और वही जब काया के साथ काम जुड़ती है, तब कायबल बन जाता है । यही प्राणधारा जब श्वास के साथ जुड़ती हैं, श्वासप्राण बन जाता है । वही प्राण की ऊर्जा जब जीवन को टिकाए रखने में सक्रिय होती है तब आयुष्यप्राण बन जाता है, जीवन शक्ति बन जाती है। एक ही प्राणधारा दस रूपों में विभक्त हो जाती है । एक ही नदी की दस धाराएं बन जाती हैं, दस प्रवाह बन जाते हैं । कृष्ण लेश्या का परिणाम जब प्राण की धारा नीचे की ओर प्रवाहित होती है, चित्त का प्रवाह नीचे की ओर जाता है तब सारे अस्तित्व का, शरीर का चेतना का केन्द्र कामकेन्द्र बन जाता है । उस कामकेन्द्र में उलझी हुई चेतना के आसपास कृष्णलेश्या के विचार पनपते हैं, नीललेश्या के विचार पनपते हैं, कापोतलेश्या के विचार पनपते हैं । अधर्म के जितने विचार हैं, आर्त्त और रौद्र ध्यान की जितनी परिणतियां हैं, वे सारी इसी कामकेन्द्र के आसपास पनपती हैं । 1 कृष्णलेश्या का एक लक्षण है- अजितेन्द्रियता । जिसमें कृष्णलेश्या होती है वह अजितेन्द्रिय होता है। यह इसका सूचक है कि ऐसी वृत्ति कामकेन्द्र के आस - पास ही उत्पन्न होती है । कामकेन्द्र के पास जो चेतना है वह कृष्णलेश्या का ही परिणाम है। चक्र और श्या जैन दर्शन ने छह लेश्याओं के आधार पर जिन तथ्यों का प्रतिपादन किया है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003071
Book TitleMukta Bhog ki Samasya aur Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1999
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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