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लड़ें स्वयं के साथ / ६७
एक राजा के मन में एक विकल्प उठा। उसने राज्यसभा में घोषणा की-जो व्यक्ति बकरे को तृप्त कर देगा उसे पुरस्कृत किया जाएगा। बिलकुल नई घोषणा थी। बकरा कभी तृप्त नहीं होता । ज्योंहि उसके सामने खाने की सामग्री रखी जाती है, वह खाने लग जाता है। पुरस्कार की बात से प्रत्येक के मन में लार टपकने लगी। एक व्यक्ति ने बकरे को खूब खिलाया, पिलाया, उसे तृप्त कर दिया। वह राजा के सामने प्रस्तुत हुआ। उसने कहा-मेरा बकरा बिलकुल तृप्त है। बकरे को लाया गया। राजा ने कर्मचारियों को आदेश दिया–चारा लाओ। चारा बकरे के सामने रखा गया। बकरे ने तत्काल चारे में मंह डाल दिया, वह खाने लग गया। राजा ने कहा - यह तो तृप्त नहीं है । कई व्यक्ति आए, असफल होकर चले गए।
तीन दिन बाद एक आदमी आया। उसने कहा- मेरा बकरा बिलकुल तृप्त है। राजा के सामने बात रखी गई। राजा ने उसे बुलाया। बकरे के सामने चारा रखा गया पर वह बिलकुल नहीं खा रहा है। राजा को आश्चर्य हुआ—यह कैसे हआ ! बकरे के सामने फिर चारा रखा तो भी वह नहीं खा रहा है । बहत देर तक चारा सामने पड़ा रहा । बकरे ने चारे का स्पर्श भी नहीं किया। राजा ने कहा- तुम उत्तीर्ण हो, पर बताओ ! यह कैसे किया?
वह बोला—महाराज ! तीन दिन हो गए। इसके साथ बराबर घूम रहा हूं। जब-जब इसने खाने का साहस किया, मेरा डंडा इसके सिर पर पड़ा और अब यह इतना प्रशिक्षित हो गया है कि खाने की हिम्मत ही नहीं कर रहा है। आवश्यक है नियंत्रण
यह दमन की बात है, नियंत्रण की बात है। जब-जब भीतर से मांग उठे, एक डंडा मारो । डंडा मारते-मारते मन प्रशिक्षित हो जाए, फिर सामने कितना चारा आए, बढ़िया पदार्थ आए, व्यक्ति उसे पसंद ही नहीं करता । नियंत्रण भी अनावश्यक नहीं होता। यह भी एक प्रकार है लड़ने का।
वृत्ति को दबाना, दबाते रहना आवश्यक है। समाज में रहने वाला व्यक्ति हो या साधना के क्षेत्र में रहने वाला व्यक्ति, दबाने की बात सबके लिए प्राप्त होती है । कोई भी व्यक्ति एक साथ वीतराग नहीं बन जाता। यह अतिकल्पना है—आज ही साधु बना और आज ही वह वीतराग बन जाएगा। इन सीढ़ियों से चढ़ा रागी बनकर और उतरेगा वीतरागी बनकर, यह कभी संभव नहीं है। हर आदमी को प्रक्रिया से गुजरना होता है। उसमें नियंत्रण भी जरूरी बात है। अगर गुरु, आचार्य, व्यवस्था या संघ का नियंत्रण न हो तो व्यक्ति अपने पथ से भटक जाए।
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