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६२ / मुक्त भोग की समस्या और ब्रह्मचर्य
जो सहस्सं सहस्साणं संगामे दुज्जए जिणे । एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ ॥ अप्पाणमेव जुज्झाहि किं ते जुज्झेण बज्झओ ? अप्पाणमेव अप्पाणं, जइत्ता सुहमेहए ॥
जो पुरुष दुर्जेय संग्राम में दस लाख लोगों को जीतता है, उसकी अपेक्षा वह एक अपनी आत्मा को जीतता है, वह उसकी परम विजय है ।
आत्मा के साथ ही युद्ध कर। बाहरी युद्ध से क्या होगा ? आत्मा के द्वारा आत्मा को जीतकर ही मनुष्य सुख पाता हैं । युद्ध के बाद सुख नहीं, दुःख बढ़ता है
जो युद्ध समर भूमि में लड़ा जाता है, उसमें व्यक्ति दूसरों के जीवन के साथ खेलता है । उसमें हारने वाला तो हारता ही है, जीतने वाला भी हार जाता है। उस युद्ध से व्यक्ति स्वयं दुःखी बनता है और सारे संसार को दुःखी बना देता है। दूसरे महायुद्ध से पहले अधिक महंगाई नहीं थी, कठिनाई नहीं थी । द्वितीय महायुद्ध के बाद लोगों की कठिनाइयां बढ़ गई, वस्तुओं के भाव यकायक बढ़ गए। महायुद्ध के बाद सारी स्थितियां बदल गई, जीवन-निर्वाह दूभर होता चला गया। इतिहासवेत्ता जानते हैं - महाभारत से पहले जो हिन्दुस्तान था, वह बहुत समृद्ध हिन्दुस्तान था । विद्या, बुद्धि, वैभव आदि से समृद्ध था, मंत्र, यंत्र से सम्पन्न था। महाभारत के बाद हिन्दुस्तान का नक्शा बदल गया । महाभारत के पूर्व और महाभारत के बाद हिन्दुस्तान में आकाश-पाताल जितना अन्तर आ गया । महाभारत युद्ध से अनेक विद्याएं लुप्त हो गई, बड़े-बड़े विद्याधर, अनेक विद्याओं के मर्मज्ञ मनुष्य समाप्त हो गए । आज अणुबम बहुत खतरनाक माना जाता है । उस समय ब्रह्मास्त्र कम खतरनाक नहीं था । एक प्रकार से मानना चाहिए - महाभारत के युद्ध में शक्तियों का लोप ही नहीं हुआ, हिन्दुस्तान की आत्मा भी चली गई । युद्ध के बाद दुनिया में सुख नहीं बढ़ता, दुःख बढ़ता है । यह एक सचाई है ।
युद्ध के दो प्रकार
नाम राजर्षि ने आत्मयुद्ध का संकल्प किया, अपने आप से युद्ध करने का संकल्प किया | आत्मयुद्ध आत्मा का आत्मा से युद्ध है। प्रश्न प्रस्तुत हुआ – अपने आप से लड़ो, इसका मतलब है, एक वह आत्मा है, जिससे युद्ध करना है और एक वह आत्मा है जो युद्ध करने वाली है। एक को पराजित करना है और एक को
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