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लड़ें स्वयं के साथ | ६१ युद्ध का होना अनिवार्य है ____ मनुष्य का सबसे उदात्त गुण है-पराक्रम । विक्रम और पराक्रम मनुष्य के विशिष्ट गुण हैं। जहां विक्रम और पराक्रम होगा, वहां अभिक्रम निश्चित होगा। 'अभिक्रमो रणे यानम्' अभिक्रम का अर्थ है-युद्ध की दिशा में प्रस्थान । यह पराक्रम का लक्षण है। प्रश्न हो सकता है—युद्ध कहां करें ? युद्ध भूमि कौन-सी हो? युद्ध किनसे करें ? युद्ध कैसे करें?
हमारे दो जगत् हैं-भीतरी जगत् और बाह्य जगत् । जिन लोगों ने भीतरी जगत् का साक्षात्कार नहीं किया है, वे बाहर में लड़ेंगे, युद्ध भूमि में दूसरों से लड़ेंगे, शस्त्रों के द्वारा लड़ेंगे। जब बाह्य जगत् का आंतरिकीकरण हो जाता है, बाह्य स्थितियों का भीतर में स्थानांतरण हो जाता है, तब भी युद्ध चलता है किन्तु वह युद्ध रणभूमि में नहीं, अपनी चेतना की भूमि पर लड़ा जाता है । वह युद्ध किसी दूसरे से नहीं किन्तु अपनी ही दुर्बलताओं से लड़ा जाता है । वह युद्ध बाह्य शस्त्र से नहीं किन्तु अपने ही शस्त्र से लड़ा जाता है, जागरूकता और अप्रमाद से लड़ा जाता है ।आंतरिकीकरण में युद्ध का साधन बदल जाएगा, स्थल बदल जाएगा, प्रकार बदल जाएगा किंतु युद्ध का होना अनिवार्य है। दुर्लभ है युद्ध का क्षण
महावीर ने कहा- जुद्धारिहं खलु दुल्लहं-युद्ध का क्षण दुर्लभ है । कोई-कोई क्षण ऐसा होता है, जो युद्ध का क्षण होता है। किसी भाग्यशाली को ही युद्ध का क्षण उपलब्ध होता है । महावीर जैसे अहिंसा के प्रवक्ता हैं वैसे ही युद्ध के प्रवक्ता भी हैं । ब्राह्मण ने नमि से कहा-राजन् ! अनेक राजाओं की आपके राज्य पर नजर टिकी हुई है । आप राज्य छोड़कर चले जाएंगे तो पीछे क्या होगा? उन सब राजाओं को अपने अधीन बना लें, उन पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लें, उसके बाद संन्यासी बन जाएं
जे केई पत्थिवा तुब्भं, नानमंति नराहिवा।
वसे ते ठावइत्ताणं, तओ गच्छसि खत्तिया ! नमि राजर्षि ने उत्तर दिया-जिसको वश में करना चाहिए, उसको वश में नहीं किया जा रहा है । मैं युद्ध में लड़े जाने वाले युद्ध में विश्वास नहीं करता। इस बाहरी युद्ध से अधिक महत्त्वपूर्ण है अपनी आत्मा से युद्ध करना---
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