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४० । मुक्त भोग की समस्या और ब्रह्मचर्य है-हम स्वयं सत्य खोजें । विचारों को सुनें, जानें और स्वयं खोज करें । ब्रह्मचर्य के क्षेत्र में भी विचारों की कमी नहीं है। इन्द्रियों का संयम कैसे करें? कितना करें? क्यों करें? वर्तमान युग में ही नहीं, महावीर के युग में भी इस संदर्भ में अनेक विचित्र विचार उभरे थे। सूत्रकृतांग सूत्र को पढ़ने वाला इस सचाई को जानता है। ब्रह्मचर्य पर सबसे अधिक बल भगवान् महावीर ने दिया। महावीर ने सब विचारों का सार प्रस्तुत किया, निमित्तों का भी और उपादान का भी । इस संदर्भ में एक बात कहने में संकोच नहीं होता-आज जितना ध्यान केवल निमित्तों पर है उतना उपादान पर नहीं दिया जा रहा है। मानसिक शद्धि कैसे करें? मन पवित्र कैसे बना रहे ? उस पर बहुत ध्यान नहीं दिया जा रहा है इसलिए जितना विकास होना चाहिए उतना नहीं हो पा रहा है।
ब्रह्मचर्य का लाभ है—प्रतिभा का विकास । ब्रह्मचर्य का लाभ है-धृति का विकास। यह स्वीकार करना चाहिए-जैसे-जैसे ब्रह्मचर्य की आंतरिक साधना परिपक्व होती है वैसे-वैसे धृति का विकास होता है, प्रतिभा का विकास होता है। ब्रह्मचर्य से सिद्ध होता है प्रातिभ ज्ञान, धृति, अपने मन एवं इन्द्रियों पर नियन्त्रण करने की क्षमता । शरीर के विकास के साथ-साथ इन आंतरिक शक्तियों के विकास का सम्बन्ध नहीं जोड़ा जा सकता। आराधना साधक तत्त्वों की
भगवान महावीर ने ब्रह्मचर्य के साधक-बाधक तत्त्वों की सन्दर विवेचना दी। हम बाधक तत्त्वों का निरसन कर साधक तत्त्वों की आराधना करें। निमित्तों का निरन्तर ध्यान रखते हुए उपादान की दिशा में अपनी यात्रा को आगे बढ़ाएं । इससे चित्त और अन्त:करण की निर्मलता बढ़ती चली जाएगी। इसके लिए प्रयोग भी बहुत अपेक्षित है। शरीर-शास्त्र का अध्ययन करने वाला व्यक्ति जानता है-वृत्ति कहां पैदा होती है? कौन उसे उभारता है ? उसकी क्रियान्विति कहां होती है और उसके निवारण के कौन-कौन से स्थान हैं? इनके बारे में जितनी स्पष्ट जानकारी आज मिल रही है शायद उतनी पहले भी थी, यह नहीं कहा जा सकता। इन दस शताब्दियों में तो ऐसा युग आया कि इन नियमों की जानकारी बहुत कम रह गई। इस विषय को एक प्रकार से लज्जनीय विषय मान लिया गया। जानकारी के अभाव में भी समस्याएं पैदा होती हैं। आचार्य भिक्षु ने 'शील की नवबाड़' ग्रन्थ लिखा। उस ग्रन्थ में ब्रह्मचर्य के साधक-बाधक तत्त्वों का सुन्दर विश्लेषण है।
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