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ब्रह्मचर्य के साधक-बाधक तत्त्व/४१
ब्रह्मचर्य : ध्यान के प्रयोग
ब्रह्मचर्य के विकास में ध्यान के कुछ प्रयोग बहुत उपयोगी हैं। हम आनन्द केन्द्र पर अहँ का ध्यान करते हैं। आज वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह माना जाने लगा है कि इससे वृत्तियों पर नियन्त्रण होता है । दर्शन-केन्द्र, ज्योति-केन्द्र—ये सारे नियत्रण करने वाले केन्द्र हैं। इन पर ध्यान करने से वृत्तियों का दमन नहीं, उदात्तीकरण होता है । दमन करना, रोकना एक बात है, उदात्तीकरण उससे बिल्कुल भिन्न है। प्रश्न है-क्या दस-बीस या पचास वर्ष बात जाने पर भी केवल नियंत्रण की ही बात रहेगी? इस दिशा में विकास होना चाहिए। हम ऐसा प्रयास करें-नियन्त्रण स्वयं उदात्तीकरण की दिशा में आगे बढ़ता चला जाए। हमारी चेतना अधिक से अधिक स्वाध्याय, ध्यान और आत्म-गवेषणा में लगे। जैसे-जैसे चेतना का नयोजन इन सबमें होगा, अन्य बातें गौण होती चली जाएंगी। विकास की दिशा में आगे बढ़ते हुए, वर्जनाओं और निमित्तों का ध्यान रखते हुए अपनी चेतना को पवित्र और निर्मल बनाते चले जाएं, ब्रह्मचर्य सिद्ध हो जाएगा। ब्रह्मचर्य केवल उपस्थ का संयम ही नहीं है। उसका अर्थ है-इन्द्रियों का संयम । उसका व्यापक अर्थ है आचार । जीवन का आचार, ब्रह्मचर्य का आचार या विद्या का पूरा विकास होगा तो जीवन में एक नया तेज और एक नई अनुभूति का आविर्भाव होगा।
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