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ब्रह्मचर्य के साधक-बाधक तत्त्व
ब्रह्मचर्य : दस स्थान
दो प्रकार की घटनाएं मिलती हैं—निमित्त से प्रभावित होने वाली घटनाएं और निमित्त की उपेक्षा कर उपादान पर चलने वाली घटनाएं । जैन आगम उत्तराध्ययन के सोलहवें अध्ययन में मुनि के लिए ब्रह्मचर्य के दस स्थान बतलाये गए हैं । वे निमित्तों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं
१. निर्ग्रन्थ स्त्री, पशु और नपुंसक से आकीर्ण शयन और आसन का
प्रयोग न करे। २. केवल स्त्रियों के बीच कथा न कहे। ३. स्त्रियों के साथ एक आसन पर न बैठे। ४. स्त्रियों की मनोहर और मनोरम इन्द्रियों को दृष्टि गड़ा कर न देखे। ५. स्त्रियों के कूजन, रोदन, गीत, हास्य, विलाप आदि के शब्द न सुने । ६. पूर्व क्रीड़ाओं का अनुस्मरण न करे । ७. प्रणीत आहार न करे। ८. मात्रा से अधिक न खाए, न पीए । ९. विभूषा न करे।
१०. शब्द, रूप, रस, गंध, और स्पर्श में आसक्त न हो। प्रकरण आचारांग का
ब्रह्मचर्य के इन दस स्थानों में उपादान की विशेष चर्चा नहीं है । आचारांग सूत्र का एक पूरा प्रकरण है, जिसमें निमित्त की चर्चा विशेष नहीं है, उपादान की चर्चा प्रमुख है। ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला अनगार
१. निर्बल भोजन करे। २. ऊनोदरिका करे, कम खाए। ३. ऊर्ध्व स्थान (घुटनों को ऊंचा और सिर को नीचा) कर कायोत्सर्ग करे । ४. ग्रामानुग्राम विहार करे। ५. यथाशक्ति आहार का परित्याग (अनशन) करे।
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