________________
३०. / मुक्त भोग की समस्या और ब्रह्मचर्य
जीवन के दस स्थान है: १. मूर्धा
२. कण्ठ
३. हृदय
४. नाभि
५. गुदा ६. वस्ति
७. ओज
८. शुक्र ९. शोणित
१०. मांस
ये दस स्थान दूसरे प्रकार से भी मिलते हैं: १.२. दो शंख --- पटपड़ियां
३.५. तीन मर्म - हृदय, वस्ति और सिर
६. कण्ठ
७. रक्त
८. शुक्र ९. ओज
१०. गुदा ।
ओज इन दोनों प्रकारों में है। वह (वीर्य) धातु का अन्तिम सार नहीं, किन्तु सातों धातुओं (रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र) का अंतिम सार है। उसका केन्द्रस्थान हृदय है, फिर भी वह व्यापी है ।'
इससे दो बातें निष्पन्न होती हैं:
१. ओज का सम्बन्ध केवल वीर्य से नहीं है ।
२. वीर्य का स्थान अण्डकोष है, जबकि ओज का स्थान हृदय है 1
ओज और वीर्य में तीसरा अंतर यह है कि वीर्य का मध्यम परिणाम ही
१. सुश्रुत, १९/३७ :
ओजस्तु तेजो धातूनां, शुक्रान्तानां परं स्मृतम् । हृदयस्थमपि व्यापि देहस्थितिनिबन्धनम् ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org