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ब्रह्मचर्य का शरीरशास्त्रीय अध्ययन / ३१ लाभप्रद होता है । वह हीन मात्रा में हो तो क्षीणता आदि दोष बढ़ते हैं । वह अि मात्रा में हो तो उससे मैथुन की प्रबल इच्छा और शुक्राश्मरी (शुक्र-जनित पथरी) रोग उत्पन्न होता है । '
ओज जितना बढ़े उतना ही लाभप्रद है । उसकी वृद्धि से मन की तुष्टि, शरीर की पुष्टि और बल का उदय होता है।
वीर्य - व्यय के दो मार्ग हैं: १. जननेन्द्रिय
२. मस्तिष्क ।
भोगी तथा रोगी व्यक्ति के काम-वासना की उद्दीप्ति तथा वायुविकार आदि शारीरिक रोग होने पर वीर्य का व्यय जननेन्द्रिय से होता है ।
योगी लोग वीर्य का प्रवाह ऊपर की ओर मोड़ देते हैं । अतः उनके वीर्य का व्यय मस्तिष्क में होता है । वीर्य का प्रवाह नीचे की ओर अधिक होने से कामवासना बढ़ती है और उसका प्रवाह ऊपर की ओर होने से काम-वासना घटती है ।
काम-वासना के कारण जननेन्द्रिय द्वारा जो वीर्य व्यय होता है, वह अब्रह्मचर्य का ही एक प्रकार है । वह सीमित होता है तो उसका शरीर पर अधिक हानिकारक प्रभाव नहीं होता । मन में मोह और संस्कारों में अशुद्धि उत्पन्न होती है । इसे आध्यात्मिक दृष्टि से हानि ही कहा जाएगा ।
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जो आदमी अब्रह्मचर्य में अति आसक्त होता है, उसकी वृषण ग्रन्थियों में आने वाले रस-रक्त का उपयोग बहिःस्राव उत्पन्न करने वाले अवयव कर लेते हैं । इसका • फल होता हैं कि अन्त:स्राव उत्पन्न करने वाला अवयव उचित सामग्री के अभाव में अपना काम करने में अक्षम रह जाता है । फलत: वह सर्व धातुओं और सर्वांग पर होने वाले अन्त:स्राव के महत्त्वपूर्ण प्रभावों से वंचित रह जाता है और अनेक प्रकार के विकार उसके शरीर में उत्पन्न होते हैं ।
आयुर्वेद के ग्रंथों में इस विषय को एक उदाहरण के द्वारा समझाया गया है । सात क्यारियों में सातवीं क्यारी में बड़ा गर्त हो या उसमें से जल निकलने के लिए छेद हो तो सीधी-सी बात है कि पहले सम्पूर्ण जल उस गड्ढे में भरने लगेगा या उस क्यारी को पूर्ण करने में व्यय होगा । यही स्थिति अति-मैथुन आदि के कारण होने
१. सुश्रुत, ११ / १२ : अतिस्त्रीकामतां वृद्धं शुक्रं, शक्राश्मरीमपि । २. ११ / १२ : ओजे वृद्धौ हि देहस्य, तुष्टिपुष्टिबलोदय ।
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