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महाव्रत और ब्रह्मचर्य । २७ पीतर से सुना जाए, स्वाद लिया जाए और स्पर्श किया जाए। प्रतिसंलीनता के लए कुम्भक की आवश्यकता होती है। उसकी प्रक्रिया इस प्रकार है-दायें नथुने से श्वास भरें। कुछ देर रोककर अन्त:कुम्भक करें। फिर बायें नथुने से श्वास को बाहर निकाल दें। कुछ देर बाह्यकुम्भक करें । इस प्रकार एक बार कुम्भक होता है। तिदिन बारह-तेरह बार इसका अभ्यास करना चाहिए।
वीर्य की उत्पत्ति समान वायु से होती है। उसका स्थान नाभि है। इसलिए कुम्भक के साथ नाभि पर ध्यान करें। पूरक करते समय संकल्प करें कि वीर्य गड़ियों द्वारा मस्तिष्क में जा रहा है। संकल्प में ऐसी दृढ़ता लाएं कि अपनी कल्पना के साथ वीर्य ऊपर चढ़ता दिखाई देने लगे। चाप में भी सहस्रार-चक्र पर ध्यान कर संकल्प करें कि नीचे खाली हो रहा है और ऊपर भर रहा है । वीर्य नीचे से ऊपर जा रहा है। ऐसा करने से वीर्य का चाप वीर्याशय पर नहीं पड़ेगा। फलत: उसके चाप से होने वाली मानसिक उत्तेजना से सहज ही बचाव हो जाएगा। इस वषय में यौन-शास्त्रियों के अभिमत भी मननीय हैं।
विज्ञानविशारद स्कॉट हाल का मत है-अण्ड और डिम्ब ग्रन्थियों के अन्त:स्राव जब रक्त के साथ मिलकर शरीर के विभिन्न अंगों में प्रवाहित होते हैं तो वे युवक और युवती के सर्वांगीण विकास में जादू की तरह नव-जीवन का प्रभाव छोड़ते हैं।
हेलेनाराइट ने इसके लिए बड़ा उपयोगी मार्ग बतलाया है-आत्मविकास के लए कोई एक कार्य अपना लेना चाहिए और एकाग्रचित्त से दिन में कई बार यह सोचना चाहिए कि जननेन्द्रिय में केन्द्रित प्राणशक्ति सारे स्नायुमण्डल में प्रवाहित होकर अंग-प्रत्यंग को पुष्ट कर रही है। थोड़े समय में ही इस मानसिक सूचना से तन और मन नये चैतन्य से स्फूर्त एवं प्रफुल्ल हो उठेंगे।
इन साधनों के अतिरिक्त शास्त्रों का अध्ययन, मनन, चिंतन, व्युत्सर्ग आदि साधन भी मन को एकाग्र करने में सहायक होते हैं। ब्रह्मचर्य के लिए केवल मानसिक चिंतन ही पर्याप्त नहीं है, दैहिक प्रश्नों पर भी ध्यान देना आवश्यक है। भोजन-सम्बन्धी विवेक और मल-शुद्धि का ज्ञान भी कम महत्त्व का नहीं है। यदि उसकी उपेक्षा की गई तो मानसिक चिंतन अकेला पड़ जाएगा।
मानसिक पवित्रता, प्रतिभा की सूक्ष्मता, धैर्य और मानसिक विकास की सिद्धि के लिए उक्त साधनों का अभ्यास आवश्यक है।
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