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________________ २६ / मुक्त भोग की समस्या और ब्रह्मचर्य उत्तराध्ययन में कहा गया --'बंभचेरे संका वा कंखा वा वितिगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायंकं हवेज्जा, केवलिपण्णत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा।' । शंका, कांक्षा और विचिकत्सा उत्पन्न होती है, भेद होता है, उन्माद होता है, दीर्घकालिक रोग और आतंक भी हो जाता है तथा केवलि-प्रज्ञप्त धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। ब्रह्मचर्य की साधना के लिए कुछ एक साधनों की सूचना दी जाती है। उनका अभ्यास किया जाए तो वह निश्चित परिणाम लाएगा। इनमें पहला साधन वीर्यस्तम्भ प्राणायाम है। इसका दूसरा नाम ऊर्ध्वाकर्षण प्राणायाम भी है। सिद्धासन में बैठकर पर्णरूप से रेचन करें। रेचनकाल में चिन्तन करें, मेरा वीर्य रक्त के साथ मिलकर समूचे शरीर में व्याप्त हो रहा है। फिर पूरक करें-जालन्धर-बन्ध और मूल-बन्ध करें । पूरक-काल में पेट को सिकोडें और फुलाएं । सिकोड़ने और फुलाने की क्रिया को पांच-सात पूरकों में सौ बार दोहराएं । दूसरा ध्यान है । तीसरा अल्पकालीन कुम्भक है । चौथा प्रतिसंलीनता है। इन्द्रियां चंचल होती हैं, पर वह उनकी स्वतंत्र प्रवृत्ति नहीं है। मन से प्रेरित होकर वे चंचल बनती हैं। मन जब स्थिर और शान्त होता है, तब वे अपने आप स्थिर और शान्त हो जाती हैं । मन अन्तर्मुखी बनता है, तब इन्द्रियां अन्तर्मुखी हो जाती हैं। महर्षि पतंजलि ने इसी आशय से लिखा है स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्य स्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः । -पातंजल योगदर्शन–साधनपाद, ५४ . अपने विषयों के असम्प्रयोग में चित्त के स्वरूप का अनुकरण जैसा करना इन्द्रियों का प्रत्याहार कहलाता है। प्रत्याहार के स्थान पर जैन आगमों में प्रतिसंलीनता का उल्लेख है। औपपातिक सूत्र में इन्द्रिय प्रतिसंलीनता के पांच प्रकार बतलाये गए हैं। इन्द्रिय प्रतिसंलीनता के दो मार्ग हैं—विषय-प्रचार का निरोध और राग-द्वेष निग्रह । आंखों से न देखें, यह विषय-प्रचार का निरोध है। विषय के साथ सम्बन्ध स्थापित हो जाए, वहां राग-द्वेष न करना, राग-द्वेष निग्रह है। प्तिसंलीनता का अर्थ है-अपने आप में लीन होना । इन्द्रियां सहजतया बाहर दौड़ती हैं, उन्हें अन्तर्मुखी बनाना प्रतिसंलीनता है। उसकी प्रक्रिया यह है कोई आकार सामने आए तो उसकी उपेक्षा कर भीतर में देखा जाए, वैसे ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003071
Book TitleMukta Bhog ki Samasya aur Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1999
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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