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________________ महाव्रत और ब्रह्मचर्य महर्षि पतंजलि ने अष्टांग का प्रतिपादन किया है। उसमें पहला अंग यम है। जैन साधना पद्धति का पहला अंग महावत है। महावतों को मूल गुण और शेष साधना के अंगों को उत्तर गुण माना जाता है । महाव्रतों के होने पर अन्य साधना के अंग विकसित हो सकते हैं। इनके न होने पर वे विकसित नहीं हो सकते । इसलिए महाव्रत मूल गुण हैं । सुदृढ़ आधार के बिना भवन की मंजिलों की कल्पना नहीं की जा सकती। वैसे ही मूल गुणों का स्थिर अभ्यास किए बिना धारणा, ध्यान और समाधि की कल्पना नहीं की जा सकती । इस दृष्टि से साधना के प्रसंग में महावतों का प्राथमिक स्थान है। महाव्रत के पांच प्रकार हैं: १. अंहिसा २. सत्य ३. अस्तेय ४. ब्रह्मचर्य ५. अपरिग्रह । इनमें मुख्य स्थान अहिंसा का है। शेष सब उसी का विस्तार है । अहिंसा के दो रूप होते हैं: १. संकल्पकृत अहिंसा २. सिद्ध अहिंसा। साधना के आरम्भ में साधक अहिंसा का संकल्प स्वीकार करता है। इसमें मानसिक भूमिका सुपरिपक्व नहीं होती, इसलिए बार-बार उतार-चढ़ाव आता रहता है। हिंसा के संस्कार पुन: पुन: उद्दीप्त होते रहते हैं। किन्तु अहिंसा का संकल्प तथा उसकी सिद्धि का लक्ष्य होने के कारण साधक उस स्थिति का अनुभव करता हुआ भी आगे की ओर बढ़ता चला जाता है। वह निराश होकर न पीछे लौटता है और न रुकता है । आन्तरिक शुद्धि का अभ्यास करते-करते कषाय क्षीण होता है, तब अहिंसा सिद्ध हो जाती है। उस स्थिति में साधक के मन में समता का पूर्ण विकास होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003071
Book TitleMukta Bhog ki Samasya aur Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1999
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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