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२४ । मुक्त भोग की समस्या और ब्रह्मचर्य
उसके मन में फिर शत्रु और मित्र का भेद नहीं रहता। जीवन के प्रति अनुराग और मृत्यु का भय नहीं रहता। हीन और उत्कर्ष की भावना समाप्त हो जाती है। निन्दा से ग्लानि और प्रशंसा से उत्फुल्लता नहीं होती । मान और अपमान से उसका मानसिक संतुलन नहीं बिगड़ता। उसमें सहज संयम विकसित होता है और उसमें सब जीवों को आत्मतुल्य समझने की प्रज्ञा प्रकट हो जाती है। • अहिंसा के साथ-साथ व्यक्ति में ऋजुता प्रकट होती है, वही उसका सत्य
पक्ष है। अहिंसा से अपनी मर्यादा का विवेक जागृत होता है, इसलिए अहिंसक व्यक्ति दूसरों के स्वत्व का अपहरण नहीं करता, यही उसका अचौर्य पक्ष
अहिंसक व्यक्ति अपने इन्द्रिय और मन पर अधिकार स्थापित करता है, यही उसका ब्रह्मचर्य पक्ष है। अहिंसक व्यक्ति आत्मलीन रहता है। वह बाह्य वस्तुओं में आसक्त नहीं होता, यही उसका अपरिग्रह पक्ष है। अहिंसा, सत्य और अपरिग्रह का आध्यात्मिक मूल्य असीम होता है। ब्रह्मचर्य दो भागों में विभक्त है:
१. संकल्पसिद्ध ब्रह्मचर्य
२. सिद्ध ब्रह्मचर्य । सिद्ध ब्रह्मचर्य की भूमिका तक पहुंचना हमारा लक्ष्य है। जैन आगमों में 'घोर बंभयारी' शब्द आता है। वह एक विशेष प्रकार की लब्धि (योगज शक्ति) है। वह दीर्घकालीन साधना से उपलब्ध होती है। राजवार्तिक के अनुसार जिसका वीर्य स्वप में भी स्खलित न हो, वह घोर ब्रह्मचारी है । जिसका मन स्वप्न में भी अणुमात्र विचलित नहीं होता, उसे घोर ब्रह्मचर्य की लब्धि प्राप्त होती हैं । शुभ संकल्पों और साधनों के द्वारा इस भूमिका तक पहुंचा जा सकता है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है-मैथुन-विरति या सर्वेन्द्रियोपरम। असत्य, चोरी आदि का सम्बन्ध मुख्यत: मानसिक भूमिका से है। ब्रह्मचर्य दैहिक और मानसिक दोनों भूमिकाओं से सम्बन्धित है । अत: उसकी पालना के लिए शरीर-शास्त्रीय ज्ञान भी आवश्यक है। उसके अभाव में बह्मचर्य को समझने में भी कठिनाई होती है।
अब्रह्मचर्य के दो कारण हैं:
१. मोह २. शारीरिक परिस्थिति।
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