________________
ब्रह्मचर्य । २१ डरने की बात नहीं आती थी। जहां मरने की बात होती–सबसे आगे होते, कभी मन में यह भय नहीं होता कि मैं मारा जाऊंगा। ब्रह्मचर्य से आत्म-विश्वास, मनोबल पैदा होता है। यह हमारी सूक्ष्मशक्ति है ब्रह्मचर्य की। इसके द्वारा आंतरिक शक्तियों का विकास होता है । उसका शरीर से कोई बहुत गहरा संबंध नहीं है । यह ठीक है कि ब्रह्मचारी होगा तो नाड़ी-संस्थान कमजोर नहीं होगा, नाड़ी संस्थान बहुत मजबूत रहेगा। स्नायुशक्ति मजबूत रहेगी। मस्तिष्क की शक्ति बहुत मजबूत रहेगी और बहुत सक्रियता रहेगी। उसका सम्बन्ध आंतरिक शक्तियों के विकास से अधिक है, शारीरिक शक्तियों के विकास से कम है।
निष्कर्ष की भाषा में ब्रह्मचर्य का अर्थ है--सब इन्द्रियों का संयम और मन का संयम । जो व्यक्ति जननेन्द्रिय का संयम करना चाहता है उसे विशेष ध्यान देना होगा रसनेन्द्रिय के संयम पर। इसीलिए उस स्थान का नाम भी प्रेक्षाध्यान में है-स्वास्थ्य केन्द्र । यानी वह स्वास्थ्य का केन्द्र है। आदमी मन और भावना से उतना ही स्वस्थ होगा जितना कि स्वास्थ्य केन्द्र उसका अधिक नियमित होगा, वश में होगा, सधा हुआ होगा। जीभ पर संयम करना, जीभ को स्थिर करना, जीभ को शिथिल करना और मौन करना-ये सब उसमें सहायक बनते हैं। इन सबसे सहायता मिलती है। वर्जनीय है तीसरा मार्ग ब्रह्मचर्य की तीन अवस्थाएं हैं
१. पूर्ण ब्रह्मचर्य। २. सीमित ब्रह्मचर्य ।
३. अब्रह्मचर्य-उच्छंखल अब्रह्मचर्य । ये तीन मार्ग हैं। तीसरे मार्ग को तो छोड़ना है। उच्छंखल अब्रह्मचर्य को छोड़ना है । दो मार्ग शेष रह जाते हैं । वह अपनी शक्ति पर निर्भर है। यह लगे कि मैं पूर्ण ब्रह्मचर्य की साधना कर सकता हूं तो सबसे अच्छी बात है। जिसको लगे कि यह सम्भव नहीं है तो सीमित ब्रह्मचर्य की बात हो सकती है। इसे कहा जाता है अणुव्रत की भाषा में 'स्वदार-संतोष'-अपनी पत्नी में संतोष करना । न वेश्यागमन, न परस्त्रीगमन, न कन्यागमन । इनका बिलकुल परित्याग करना । यह एक प्रकार से सीमित ब्रह्मचर्य हो गया।
जब हमारा दृष्टिगमन साफ हो जाता है और हम स्वास्थ्य की दृष्टि से-शारीरिक, मानसिक और आंतरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से विचार करते हैं तो इन दोनों में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org