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ब्रह्मचर्य । १७ सुख दुःख का संवेदन
दो ग्रन्थियां खोजी गईं हैं सिर के पीछे, जिसे गुप्ति का भाग कहा जाता है। वहां छोटी-छोटी दो ग्रन्थियां हैं। वे परस्पर सटी हुई हैं। आज का वैज्ञानिक विश्लेषण यह है कि एक ग्रन्थि जाग जाए तो फिर चाहे जितनी भयंकर घटना घटित हो जाए, आदमी को कभी दुःख नहीं होगा और दूसरी ग्रंथि जाग जाए तो चाहे जितनी अनुकूलता मिल जाए, वैभव मिल जाए, संपदा मिल जाए---उसे कभी सुख नहीं होगा। हमारी धारणा यह है कि सुख और दुःख हमें बाहर से मिलता है। किन्तु सचाई यह है कि इनका संवेदन भीतर में होता है । पदार्थ हो चाहे न हो, कोई फर्क नहीं पड़ता। पदार्थ होने पर भी सुख-दुःख मिल सकता है । मिलेगा तभी जब उस प्रकार के प्रकम्पन और स्पंदन हमारे मन में जाग जाएंगे, उस प्रकार की तरंग जागेगी और विद्युत्-धारा का योग हो जाएगा। यह हमारी नितांत संवेदना की प्रक्रिया है। हम जो नियमन करेंगे, संयम करेंगे, वह पदार्थ का नहीं करेंगे। हम संवेदना का नियमन करेंगे। इस संवेदना के रहस्य को समझ लेना ही ब्रह्मचर्य को समझ लेना है । जिस व्यक्ति ने संवेदना के रहस्य को नहीं समझा वह इस रहस्य को नहीं समझ सकता। वह केवल बाहरी वस्तु पर भटकता रहेगा, बाहरी पदार्थ पर उलझता रहेगा। यह सही है कि बाहरी पदार्थ भी उस संवेदना को जगाने का निमित्त बनता है किन्तु सुख-दुःख देने का निमित्त नहीं बनता।
यौन हार्मोन्स का स्राव सब व्यक्तियों में होता है। पहले पीनियल ग्रन्थि के द्वारा उसे रोक लिया जाता है। वह नीचे नहीं जाता। जब बालक बारह-तेरह वर्ष का होता है तब पीनियल निष्क्रिय होने लगता है और यौन हार्मोन्स, उत्तेजना के जो हार्मोन्स हैं, ये स्राव नीचे जाने लगते हैं । यौन हार्मोन्स का गोनाड में आना और उसे प्रभावित करना—यही है अब्रह्मचर्य। यह बिलकुल शारीरिक प्रक्रिया है कि वे हार्मोन्स आते हैं और गोनाड ग्रन्थि को प्रभावित करते हैं, कामग्रन्थि को प्रभावित करते हैं और तब काम-वासना की विचारधारा जाग जाती है। जिस व्यक्ति ने दर्शनकेन्द्र पर, ज्योतिकेन्द्र पर ध्यान किया और उन यौन-हार्मोन्स को नियंत्रित करना सीख लिया, उस व्यक्ति में परिवर्तन आ जाएगा।
कई प्रकार की वृत्तियां होती हैं। एक वृत्ति वह होती है, जिसमें यह वासना जागती ही नहीं । यह तो बहुत आगे की भूमिका है। एक वृत्ति वह होती है, जिसमें वासना जागती है किन्तु सताती नहीं और एक वृत्ति वह होती है, जिसमें वासना जागती है और निरन्तर सताती है ।
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