SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६ / मुक्त भोग की समस्या और ब्रह्मचर्य क्यों आता है पागलपन ? ... यह बिल्कुल सही बात है कि जो अति है वह बहुत खतरनाक है । कुछ लोग जो मनोविज्ञान की भाषा में सोचते हैं वे ऐसा भी सोचते हैं कि ब्रह्मचारी रहने वाला पागल हो जाता है, विक्षिप्त हो जाता है। बात भी ठीक है । इसमें सचाई भी है कि अब्रह्मचर्य सुख है। इसमें कोई संदेह नहीं माना गया है। आदमी एक सुख को ठुकराता है, शरीर की मांग को ठुकराता है तो प्रतिक्रिया होती है, कुछ विक्षेप होता है और पागलपन-सा आता है। किंतु यदि उससे दूसरा बड़ा सुख मिल जाता है तो पागलपन नहीं आता, और अधिक आनंद आने लग जाता है। यह पागलपन का जो प्रश्न आता है वह उस स्थिति में आता है, जब आदमी प्राप्त सुख को छोड़ता है और दूसरा सुख कोई सामने नहीं होता । एक लकीर है। उसके नीचे बड़ी लकीर खींच दें तो पहले वाली अपने आप छोटी हो जाएगी। किन्तु लकीर कोरी रहती है तो बड़ी या छोटी की बात नहीं होती । बड़ा सुख उपलब्ध किया जाए तो फिर यह बात अपने आप गौण हो जाती है। सुख का अर्थ उसकी साधना के कुछ सूत्र हैं। उन सूत्रों का आलम्बन लेने पर सहज सुख उपलब्ध होता है और उससे भी ज्यादा सुख उपलब्ध हो जाता है। ध्यान की प्रक्रिया में अन्तर्यात्रा का प्रयोग किया जाता है। अन्तर्यात्रा का अच्छा अभ्यास होने पर, सुषुम्ना में चित्त की ऊपर और नीचे की यात्रा होने पर ऐसे सुख का अनुभव होता है कि जैसा शायद भोग में भी नहीं होता। ___दर्शनकेन्द्र पर बालसूर्य का ध्यान करते-करते ऐसे स्पंदन जागते हैं, ऐसे सुख का अनुभव होता है कि वैसा सुख काम-सेवन में भी नहीं होता। अगर हम इसके वैज्ञानिक कारण को समझ लें तो बात बहुत स्पष्ट हो जाएगी। सुख का अर्थ होता है-मन का संकल्प और विद्युत्-रसायन का योग होना । वास्तव में जो सुख या दुःख होता है, वह एक प्रकार की विद्युत्-धारा के साथ हमारे मन का योग होने से होता है। एक प्रकार के रसायन के साथ हमारा मन जुड़ता है तो सुख का संवेदन बन जाता है । दूसरे प्रकार की विद्युत्-धारा या दूसरे प्रकार के रसायन के साथ मन जुड़ता है तो दुःख का संवेदन बन जाता है। योग होना मन का-यह एक बड़ी बात है। हम अपने भीतरी रसायनों के साथ, विद्युत्-प्रवाहों के साथ अपने मन को जोड़ सकें तो बहुत सुख उपलब्ध हो सकता है ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003071
Book TitleMukta Bhog ki Samasya aur Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1999
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy