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भोग : अकरण का संकल्प और तादात्म्य | १४१ मैं क्या करूं?
ठाकुर ने संकल्प लिया, पर मन का भाव नहीं बदला। यह दोनों के बीच का संघर्ष है। संकल्प के साथ मन का भाव भी बदलना चाहिए, तब अनुभव के जागने की बात प्राप्त होती है।
इन दो सूत्रों के साथ तीसरा सूत्र भी परम आवश्यक है। जब परमात्मा के साथ, आत्मा के साथ तादात्म्य नहीं जुड़ता, तब तक अनुभव नहीं जागता। बहुत बड़ी बात है परमात्मा के साथ, अर्हत् के साथ तादात्म्य होना । जब तक अर्हत् की दशा का अनुभव करने का अभ्यास नहीं होता तब तक अनुभव नहीं जागता ।
आचारांग में कहा गया -जो परम को देख लेता है, वह उससे एकात्म हो जाता
अनुभव जागरण के तीन सूत्र
अनुभव की जागृति के ये तीन साधन हैं-१.अकरण का संकल्प २. वैसा ही भाव और मन ३. परम आत्मा के साथ तादात्म्य । इस त्रिपदी से अनुभव जागता है
अकरणस्य संकल्पः, भावो मनोऽपि तद्गतम् ।
परात्मना च तादात्म्यं, प्रस्फुटोऽनुभवस्तदा । गुरु ने शिष्य से पूछा-क्या तूने तीनों का अभ्यास किया है ? शिष्य बोला-नहीं। मैंने केवल अकरण का संकल्प मात्र लिया है। वर्षों से उसे निभा रहा हूं, पर अनुभव-शून्य हूं।
गुरु बोले-भाव शुद्धि के बिना कुछ नहीं हो सकता। यह नितांत आंतरिक पक्ष है । दूसरा व्यक्ति केवल बाह्य को पकड़ता है, पकड़ सकता है । अन्तर को वह जान नहीं सकता। व्यक्ति स्वयं ही उसे जान पाता है । भाव शुद्धि का प्रश्न नितांत वैयक्तिक है । कालसौकरिक बड़ा कसाई था। वह प्रतिदिन पांच सौ भैंसे मारता था। उसे कुएं में डाल दिया गया। माना गया कि वहां भैंसे कैसे मारेगा? कुएं में भैंसे कहां? कालसौकरिक के अकरण तो हो गया, पर मन में भाव हिंसा का चल रहा था। उसने मिट्टी के भैंसे बनाने प्रारम्भ किए और एक-एक कर पांच सौ भैंसे मार डाले । भावना से उसने अपना काम कर डाला। इसे कौन रोक सकता है ? सत्ता, राज्य और दंड के शक्ति भी वहां नाकामयाब होती है। सत्ता, राज्य और दंड की शक्ति शरीर पर काबू कर सकती है, भावना पर नहीं । यही तो लौकिक और अलौकिक, व्यावहारिक और आध्यात्मिक की भेदरेखा है। शरीर को रोका जा सके वह है लौकिक या व्यावहारिक ।
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