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1 मुक्त भोग की समस्या और ब्रह्मचर्य
दो व्यक्ति हैं । एक धर्म को समझता है और दूसरा धर्म को नहीं समझता । दोनों आसन-प्राणायाम करते हैं परंतु दोनों के लक्ष्य की भिन्नता है। धर्म को नहीं जानने वाला आसन-प्राणायाम शारीरिक स्वास्थ्य के लिए करता है और धर्म को जानने वाला कर्म - निर्जरा के लिए, संस्कारों के परिष्कार के लिए आसन-प्राणायाम करता है । क्रिया दोनों एक ही करते हैं, पर लक्ष्य की भिन्नता के कारण क्रिया की परिणति भिन्न-भिन्न हो जाती है ।
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आचार्य भिक्षु ने एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त का प्रतिपादन किया । उन्होंने कहा- पुण्य के लिए कोई साधना मत करो । आत्मशुद्धि के लिए धर्म की आराधना करो । लौकिक उदाहरण देते हुए उन्होंने समझाया - तूडी और पलाल पैदा करने के लिए कोई खेती नहीं करता। खेती की जाती है अनाज के लिए । साथसाथ तूडी और पलाल तो होगा ही । यही व्यावहारिक और आध्यात्मिक सोच का अंतर है ।
जिसका दृष्टिकोण केवल व्यावहारिक होता है, वह केवल भोग को छोड़ देता है, पर उसके साथ संकल्प को नहीं जोड़ता । जब तक संकल्प को नहीं जोड़ा जाता तब तक जो परिणाम होना चाहिए वह नहीं होता । संकल्प उसी क्रिया को और अधिक तेजस्वी बना डालता है ।
अनुभव को जगाने का पहला सूत्र है--न करने का संकल्प । इतने मात्र से काम नहीं बनता । संकल्प ग्रहण कर लिया, पर भाव कहीं दूसरी ओर भाग रहा है । मिठाई नहीं खाऊंगा - यह संकल्प ग्रहण कर लिया, परन्तु भीतर का भाव कहता है— रोज मत खाओ, पर कभी-कभी खाने में क्या हर्ज है। अच्छी चीज बार-बार नहीं मिलती । इससे मन ललचा जाता है। भाव के साथ मन भी बह जाता है । वह भी वैसा ही बन जाता है । अब भाव और संकल्प में संघर्ष होता है । भाव दूसरी दिशा में जाता है और मन दूसरी दिशा में दोनों में टकराहट होती है । इस स्थिति में अनुभव नहीं जागेगा
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ठाकुर ने आलू का प्रत्याख्यान कर लिया । तीर्थयात्रा पर गया। एक स्थान पर जीमनवार था । वह भोजन करने बैठा। वहां आलू की सब्जी बनी थी । परोसने वाले से कहा - आलू नहीं, केवल झोल आने दो। उसने वैसा ही किया परंतु चम्मच में एक आलू भी आ गया और उसने उसे ठाकुर की थाली में परोसा । ठाकुर उसे खाने लगा तब पास में बैठे एक भाई ने उसे प्रयाखान की स्मृति दिलाई। ठाकुर बोला- यह आलू नहीं, लुढकन है। लुढकते लुढकते आ गया ।
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