________________
भोग : अकरण का संकल्प और तादात्म्य
साधना की प्रक्रिया : अवबोध
एक साधक बहुत वर्षों से साधना कर रहा था। एक दिन वह गुरु के पास जाकर बोला- 'गुरुदेव ! लंबे समय से साधनारत हूं, पर अभी तक साधना नहीं जागी। अभी तक मैं कही हुई, सुनी हुई, पढ़ी हुई बात ही दोहरा रहा हूं । अनुभव अभी तक नहीं जागा है । वह कब जागेगा ?'
गुरु बोले- 'देखो, केवल रूढिगत साधना करते रहने से अनुभव नहीं जागता । उसको जगाने एक पूर्ण प्रक्रिया है। जब तक साधक इस प्रक्रिया से नहीं गुजरता, उस प्रक्रिया को पूरा नहीं जीता, तब तक अनुभव नहीं जागता ।'
'गुरुदेव ! वह प्रक्रिया क्या है ? '
'वत्स ! अनुभव तब जागता है जब ये तीन बातें क्रियान्वित होती हैं। पहली है - अकरण का संकल्प । भोग न भोगना एक बात है परंतु भोग न भोगने का संकल्प करना, अकरण का संकल्प करना दूसरी बात है । एक आदमी मिठाई नहीं खाता क्योंकि वह सुगर का मरीज है और डाक्टर ने मिठाई खाने का वर्जन किया है। उसने मिठाई का भोग छोड़ दिया । यह व्यवहार की बात है । अध्यात्म उससे आगे है । व्यवहार शरीर से जुड़ी प्रक्रिया है। जब उसके साथ संकल्प की कड़ी जुड़ती है तब वह अध्यात्म बन जाती है । जब भोग न करने के साथ आंतरिक संकल्प जुड़ जाता है कि मुझे यह नहीं करना है, तब वह व्यावहारिक न रहकर आध्यात्मिक प्रक्रिया बन जाती है।
भोग न भोगना – इसका भी अपना एक मूल्य है, पर वह है छोटा। जब उसके साथ संकल्प जुड़ जाता है, अकरण की बात जुड़ जाती है, तब वह अत्यन्त मूल्यवान् हो जाता है । यही अध्यात्म है ।
बीमारी के लिए छोड़ना एक बात है, पर आत्मशुद्धि के लिए अकरण करना दूसरी बात है । यह उदात्तीकरण की प्रक्रिया है । संकल्प को जोड़ने से क्रिया का स्वरूप बदल जाएगा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org