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१३८ । मुक्त भोग की समस्या और ब्रह्मचर्य
हम वर्तमान स्थिति को देखें। आज हिन्दुस्तान की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। विदेशों की स्थिति इससे भी ज्यादा खराब है । इतनी समस्याएं, इतनी जटिलताएं और मानसिक संताप बढ़ रहा है कि व्यक्ति को कहीं कुछ सूझ नहीं रहा है, उसे कोई रास्ता ही नहीं मिल रहा है। इसका कारण है भोगवाद को सब कुछ मान लेना। ऐसा लगता है संयम करने की बात जैसे सिखाई ही नहीं गई है। इस संदर्भ में हम महावीर वाणी का मूल्यांकन करें। समस्या के समाधान के लिए आवश्यक है- भोग की अति न हो । प्रत्येक चीज की सीमा होनी चाहिए, अंकुश होना चाहिए, नियन्त्रण होना चाहिए। जहां कहीं अति होती है शायद खराबी पैदा हो जाती है। कुछ लोग तर्क देते हैं-त्याग की भी अति नहीं होनी चाहिए। प्रश्न है-अति कहां होती है? इन्द्रियों का भोग कौन नहीं करता? क्या एक मुनि इन्द्रियों का भोग नहीं करता? एक मुनि खाता भी है, देखता भी है, सुनता भी है, सूंघता भी है, छूता भी है । इन्द्रियों का भोग होता है किन्तु उसके पीछे दो बातें जुड़ी हैं-एक है अनासक्ति का भाव और दूसरी है मात्रा का विवेक । यदि भोग के साथ ये दो बातें जुड़ जाएं तो भोग खतरनाक नहीं बनेगा। वह अपनी प्रकृति से चलेगा, व्यक्ति के लिए खतरा पैदा नहीं करेगा। त्याग करना भी सीखें
आज भोगवाद की कोई सीमा-रेखा नहीं है, इसीलिए इस युग को भोगवादी युग कहा जा रहा है। आज यह धारणा मिट गई कि भोग के साथ त्याग की भावना होनी चाहिए। पांच इन्द्रियों के विषय का सेवन करें. तो साथ में उनका त्याग करना भी सीखें। भोग की अति न हो। भोग का संयम करें। भोग के साथ भोगातीत चेतना का अनुभव करें, यह आवश्यक है। हमारी जो चेतना है, वह स्वभाव से भोगातीत है, हम उसका अनुभव करें, उसे देखें। यदि हम भोग-चेतना और भोगातीत चेतना-इन दोनों का संतुलन बना पाए तो जीवन की स्थिति लय-बद्ध बन जाएगी, जीवन की लय टूट नहीं पाएगी। इस संतुलन से जीवन की सरसता भी समाप्त नहीं होगी, जीवन स्वस्थ बना रहेगा। इस पूरे दृष्टिकोण को समग्रता से समझा जाए, भोग-नियंत्रण एवं भोग-संयम की आवश्यकता का अनभव किया जाए तो स्वस्थ समाज की रचना का सपना सच बन जाए।
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