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आवश्यक है भोग का संयम / १३७ रोग से बचाती है । जिस व्यक्ति की रोग-निरोधक शक्ति कमजोर हो जाती है, उसे रोग घेर लेते हैं । जो व्यक्ति जितना भोग करेगा, उसकी उतनी ही रोग-निरोधकता कम होती चली जाएगी | कौन-सी बीमारी के कीटाणु हैं, जो हमारे भीतर नहीं हैं ? सब बीमारियों के कीटाणु आदमी के भीतर घूम रहे हैं किन्तु उसकी रोग-प्रतिरोधक शक्ति प्रबल है इसलिए वे कीटाणु आक्रमण नहीं कर पा रहे हैं। रोग निरोधक शक्ति इतनी तेज है कि वह सारे कीटाणुओं को समाप्त कर देती है । भोग और रोग
बन्धन किसके होता है ? जो बंधा हुआ है, उसके बन्धन होता है । जो मुक्त हो गया, उसके बन्धन नहीं होता । रोग उसी के पास जाते हैं, जो रोगी होता है । जो अरोगी है, उसे रोग नहीं होता ।
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बद्धं कर्माणि बध्नंति, रोगो गच्छति रोगिणाम् । अबद्धो न भवेद् बद्ध, विरागो नामयास्पदम् ॥
रोग पैदा होते हैं क्योंकि भोग का रोग भीतर बैठा है। अगर भोग का रोग नहीं है तो रोग पैदा नहीं होगा । यदि व्यक्ति भोगी है तो वह रोगी है। अगर व्यक्ति भोगी नहीं है तो वह रोगी नहीं है । हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि जहां भी रोग है वहां निश्चित रूप से किंचित् मात्रा में भोग भी योग दे रहा है, अपना काम कर रहा है। अगर भोग नहीं होता तो रोग होता ही नहीं। रोगी ही बार - बार रोगी होता है लेकिन जो रोगी नहीं है, उसे रोगी बनाया ही नहीं जा सकता ।
प्रलय का सूत्र
हमारा भोगवाद के प्रति दृष्टिकोण बदले । हमारे लिए भोग अनिवार्य है, आवश्यक है, हम खुले दिल से भोग करें, यह धारणा जिस दिन बन जाती है, रोग को निमंत्रण मेल जाता है । आज भोगातीत चेतना के विकास की जरूरत है और वह इसलिए है के आदमी अच्छा जीवन जीना चाहता है। मैं यह नहीं मानता कि दुनिया में भोग मिट जाएगा, भोग नहीं चलेगा किन्तु भोग के साथ भोगातीत चेतना का विकास भी चले, यह अपेक्षित है । यानी त्याग की चेतना, भोग-संयम की चेतना का विकास भी होना बाहिए। यदि कोरा भोग चलता रहा तो खतरा बढ़ जाएगा । अणुबम से ज्यादा लयंकारी बन जाएगा यह उच्छृंखल भोगवाद । अणुबम न जाने कब प्रलय करेगा कंतु यह भोगवाद अपने आप प्रलय का सूत्र बन जाएगा ।
आवश्यक है अंकुश
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