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९४२ / मुक्त भोग की समस्या और ब्रह्मचर्य
भावों पर नियंत्रण कर सके, वह है अलौकिक या आध्यात्मिक । धर्म या अध्यात्म के सिवाय कोई शक्ति भावों को नहीं बदल सकती, रोक नहीं सकती। यदि यह बात हृदयंगम हो जाए तो व्यक्ति धर्म और अध्यात्म का सही मूल्य आंक सकता है ।
आज धर्म का मूल्य भी बाहरी बना दिया गया है, सारा मूल्यांकन व्यावहारिक तों से होने लगा है कि वह कितनी सामायिक करता है ? क्या-क्या उपासनाएं करता है ? कौन कौन से क्रियाकांड करता है ? आदि-आदि। ये सारे धर्म तक पहुंचने के माध्यम हैं पर मूल नहीं हैं। मूल है भावशुद्धि । यहीं से परिवर्तन प्रारंभ होता है ।
तीसरा तत्त्व, जो अनुभव को जगाता है, वह है परमात्मा के साथ तादात्म्य जोड़ देना । प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति का अपना इष्ट होता है, आदर्श होता है। उसके साथ तदात्म हो जाना, तन्मय हो जाना, यह अपेक्षित है
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‘अर्हम्' का कोरा जप नहीं करना है । ' णमो अरहंताणं' बोलते समय अपने आपको अर्हत् के रूप में अनुभव करना है। यह है तदात्म होने की प्रक्रिया । गुरु ने शिष्य से कहा- तुम 'अकरण' के साथ इन दोनों बातों - भावशुद्धि और इष्ट के साथ तादात्म्य को जोड़ दो। फिर देखो कि जो होना होता है, वह घटित होता है या नहीं ? पूर्ण प्रक्रिया को जाने बिना, पूरी बात को समझे बिना कार्य होता नहीं है।
अधूरी बात
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एक विद्यार्थी के पास दो पेंसिलें थीं— एक घरवाली और एक स्कूलवाली । वह दोनों पेंसिलें लाया था कक्षा में । एक गुम हो गई । वह कक्षा में उदास बैठा रहा । अध्यापक ने पूछा - ' अरे ! उदास क्यों हो ? क्या हो गया ?' विद्यार्थी ने कहा - 'सर ! घरवाली खो गई ।' कक्षा के सारे विद्यार्थी हंस पड़े । अध्यापक भी हंसने लगा । वह बेचारा हैरान था कि इसमें हंसने जैसा क्या था । उसने कहा'सर ! मेरी तो घरवाली खो गई और आप सब हंस रहे हैं ?' अध्यापक बोला'अरे ! अभी तो तुम कुंआरे हो, घरवाली कहां से आ टपकी ?' उसने कहा- 'मेरी घरवाली पेंसिल खो गई है ।' बात स्पष्ट हो गई ।
अधूरी बात से उपहास का पात्र बनना ही होता है ।
धार्मिक लोग भी प्रक्रिया को पूर्ण नहीं करते । अधूरी प्रक्रिया कहीं नहीं पहुंचाती ।
जिन व्यक्तियों ने इन तीनों सूत्रों का अभ्यास किया है, उनका अनुभव जगा है
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