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१३० । मुक्त भोग की समस्या और ब्रह्मचर्य करें? हम उसके लिए बाड़, दीवार या कांटे लगाएं पर ध्यान केवल उसी पर केन्द्रित न रहे। ध्यान इस पर केन्द्रित होना चाहिए-अंगूरों के बाग की सिंचाई ठीक हो रही है या नहीं? मनोज्ञता या अमनोज्ञता का भाव कम हो रहा है या नहीं? हमें उस भाव का निग्रह करना है। यह नहीं बताया गया, आंख का निग्रह करो, कान एवं जीभ का निग्रह करो। यह भी नहीं बताया गया, रूप का निग्रह करो। किन्तु यह कहा गया, राग-द्वेष का निग्रह करो, प्रिय-अप्रिय एवं मनोज्ञ-अमनोज्ञ भाव का निग्रह करो। हमारी साधना का बिन्दु यह है। यदि इस बिन्दु को नहीं पकड़ा और केवल सुरक्षा में अटके रहे तो शायद उलझ जाएंगे। ____ महामात्य कौटिल्य ने लिखा 'अवश्येन्द्रिय: चातुरंतोऽपि राजा सद्यो विनश्यति- जिसकी इंद्रियां वश में नहीं हैं, वह चातुरन्त राजा भी सद्य विनाश को प्राप्त होता है। चक्रवती कहलाता है चातुरन्त राजा। इतना शक्तिशाली राजा भी इन्द्रियों का वशवर्ती होने पर नष्ट हो सकता है। एक राजा के लिए इन्द्रिय-जय बहुत जरूरी है। प्रश्न आया-इन्द्रिय-जय किसे माना जाए? कौटिल्य अर्थशास्त्र में कहा गया- इन्द्रियजय: कामक्रोधलोभमानमदहर्षत्यागात् कार्य:-काम, क्रोध, लोभ, मान, मद और हर्ष—-इन छह का त्याग कर इन्द्रियों को विजित किया जा सकता है। कौटिल्य ने छह घटनाओं के निदर्शन भी प्रस्तुत किए हैं। कौन सम्राट काम के कारण नष्ट हो गया? कौन लोभ और मद के कारण नष्ट हो गया? कौटिल्य ने इसे विस्तार से प्रस्तुति दी है। काम और प्रसक्ति
धारणा यह है-काम-स्पर्शन इन्द्रिय का विषय है। चिन्तन करने पर लगता है, काम स्पर्शन इन्द्रिय का विषय नहीं है । स्पर्शन इन्द्रिय का कार्य दूसरा है । हवा ठण्डी लगी और मनोज्ञ भाव आया तो स्पर्शन इन्द्रिय का राग हो गया। हवा गर्म लगी, लू लगी तो अमनोज्ञ भाव आ गया। इसका विषय है-- स्पर्शों का अनुकूल तथा प्रतिकूल संवेदन । काम है कर्मेन्द्रिय से संबंधित । हमारी पांच ज्ञानेन्द्रियां हैं
और पांच कर्मेन्द्रियां । उपस्थ, पाणि, मुख, पैर, मन ये कर्मेन्द्रियां हैं। काम के कारण इन्द्रिय की प्रसक्ति बनती है। किन्तु काम अलग है और प्रसक्ति अलग है । प्रसक्ति का एक कारण है काम । दूसरा कारण है क्रोध । क्रोध के कारण इन्द्रियों की प्रसक्ति बढ़ती है, द्वेषात्मक प्रवृत्ति जन्म लेती हैं। किसी चीज को देखा और घृणा उभर आई । कभी कभी ऐसी घृणा भी व्यक्ति के मन में उभर जाती है कि उसे खाना तक अच्छा नहीं लगता। इसीलिए अघोरी साधना में इस बात पर बल दिया गया
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