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________________ इन्द्रिय विजय का सूत्र | १२९ इन्द्रिय-विजय की बात को समझें, उसका हृदय समझें, जिससे इन्द्रियों को कोसने की जरूरत न पड़े। बादशाह ने बीरबल से कहा-जिसके आगे वान शब्द लगता है वह बड़ा निकम्मा और अड़ियल होता है । जैसे गाड़ीवान्, धनवान्–ये सब अड़ियल प्रकृति के होते हैं । तुम दीवान हो, तुम्हारे आगे भी वान लगता है इसीलिए तुम भी वैसे ही हो। बीरबल ने तपाक से उत्तर दिया-मेहरबान ! आप ठीक फरमा रहे हैं। बीरबल यह कहकर बादशाह को अपनी कोटि में ले आया। बादशाह यह सुन अवाक रह गया। .. जब हम बिना सोचे समझें कोई बात कहते हैं तब ऐसा ही होता है। इन्द्रिय-विजय क्या है ? इस संदर्भ में उत्तराध्ययन सूत्रकार ने एक महत्त्वपूर्ण सूचनी दी है—'श्रोत्र आदि इन्द्रियों के निग्रह से जीव मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्द आदि विषयों में होने वाले राग और द्वेष का निग्रह करता है । वह तत्संबंधी-राग द्वेष के निमित्त से होने वाला कर्म-बंधन नहीं करता तथा पूर्वबद्ध तनिमित्तक कर्म को क्षीण करता है। यह एक बिल्कुल नई बात है। वे ही इन्द्रियां कर्म-बंधन के हेतु भी हैं और उनके निर्जरण का हेतु भी । इस संदर्भ में हम संविज्ञान चेतना और संवेदन चेतना को अलग अलग समझें । हमने आंख से देखा, केवल देखा । यह संविज्ञान चेतना है-ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय कर्म का क्षयोपशम है। यदि हमनें उसके साथ संवेदन की चेतना को जोड़ दिया, प्रियता और अप्रियता की चेतना को जोड़ दिया तो मोहनीय कर्म जुड़ गया । इस स्थिति में संविज्ञान चेतना गौण हो गई और संवेदन की चेतना प्रधान । इसका अर्थ यह हुआ-आवरणीय कर्म के साथ साथ मोहनीय कर्म का बंध हो गया। इससे न तन्निमित्तक कर्म का बंध रुकता है और न तत्रिमित्तक पूर्वकृत कर्म का बंध क्षीण होता है । जो व्यक्ति आंख से केवल देखता है, संविज्ञान करता है, किन्तु उसके साथ संवेदना की चेतना को नहीं जोड़ता, वह चक्षु से संबंधित नए कर्म का अर्जन नहीं करता और पूर्व बद्ध चक्षु से संबंधित कर्म को क्षीण कर देता है। जितेन्द्रियता में बाधा ___ हम मूल बात को समझें—प्रिय-अप्रिय, मनोज्ञ-अमनोज्ञ से कैसे दूर रह सकें? इन्द्रिय-विजय में बाधा है मनोज्ञ-अमनोज्ञ की चेतना । जब तक व्यक्ति की यह चेतना जागृत है, इन्द्रिय-विजय संभव नहीं हो सकती। हम साधना कहां से शुरू Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003071
Book TitleMukta Bhog ki Samasya aur Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1999
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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