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१२८ । मुक्त भोग की समस्या और ब्रह्मचर्य
इन्द्रिय-विजय का सूत्र ___ जहां इन्द्रिय विजय का प्रश्न है, वहां भी इन दोनों बातों पर ध्यान देना होगा। मूल ध्यान देना है निग्रह पर । इन्द्रियां अपने आप में जटिल समस्या हैं । ये ही ज्ञान के स्रोत हैं और ये ही राग-द्वेष के निमित्त हैं । आंख से हमें देखना है । देखने का एक रूप है संविज्ञान चेतना । उसका दूसरा रूप है संवेदन चेतना । संविज्ञान और संवेदनदोनों चेतनाओं का दरवाजा एक है । दरवाजा खुला है तो उसमें से आदमी भी आ सकता है, गधा भी आ सकता है। एक ही खिड़की है। खिड़की को बंद करो तो काश और हवा नहीं आएगी। यदि उसे खोल दें तो आंधी भी आएगी, रेत भी आएगी। क्या ऐसा कोई विकल्प है, जिससे प्रकाश और हवा आए पर आंधी न आए, त न आए? क्या ऐसा कोई ढक्कन है? ___ अध्यात्म के आचार्यों ने एक उपाय निकाला मनोज्ञ और अनमोज्ञ के निग्रह का। आंख को बंद करने की जरूरत नहीं है। कान और जीभ को भी बंद करने की जरूरत नहीं है। हम इन्द्रियों से काम लेंगे क्योंकि हमारे ज्ञान के वे ही स्रोत है । हमारा ज्ञान आता कहां से है ? बाह्य जगत् को जानने का, उसके साथ संपर्क स्थापित करने का पहला माध्यम है इन्द्रिय चेतना । यदि इन्द्रियां न हों तो जगत् का क्या अर्थ रह जाएगा? एक आदमी को सुनाई नहीं देता। उसके लिए जगत् का एक हिस्सा कट गया। जो गूंगा और बहरा—दोनों होता है, उसके लिए जगत् का एक बहुत बड़ा हिस्सा कट जाता है । एक बहरा आदमी कैसी कैसी कल्पनाएं करता होगा? उसे कहा कुछ जाता है और वह उसका अर्थ कुछ निकाल लेता है। आंख है देखने का माध्यम, कान है सुनने का माध्यम, जीभ है बोलने का माध्यम । जिसके ये तीनों नहीं हैं, उसके लिए जगत् का क्या कोई अर्थ हो सकता है ? उसके लिए जगत् का होना न होने जैसा हो जाता है। इन्द्रिय-विजय क्यों?
प्रश्न हो सकता है-इन्द्रियों को जीतने की बात क्यों सोचें? उनके विकास की बात सोचनी चाहिए। इन्द्रियों के संदर्भ में दो शब्द प्रयुक्त होते हैं-पटुता और अपटुता । जिसमें इन्द्रिय-पटुता होती है, वह बहुत ज्ञानी बन जाता है । संभिन्नस्रोतोलब्धि इन्द्रिय पाटव का ही विकास है । जिसने इन्द्रिय का इतना विकास कर लिया, वह हजार कोस दूर की चीज देख लेता है, इतनी दूरी की आवाज सुन लेता है। जिस इन्द्रिय में इतना पाटव है, उसका द्वार रोकने की जरूरत ही नहीं है। हम
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