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विषय को नही, विकार को जीतें । १२५ 'सेठजी ! अकाल राहत के लिए नहीं तो बाढ़ राहत के लिए चंदा दें, बाढ़-पीड़ितों के लिए चंदा दें। अकाल मिटते ही बाढ़ तैयार है।' भोग का परिणाम
मनुष्य कभी तृप्त नहीं होता। समुद्र कभी तृप्त नहीं होता, चाहे उसमें कितनी नदियां गिर जाएं । भोग का एक परिणाम है अतृप्ति । मनुष्य उस अतृप्ति को बुझाने के लिए माया-मृषा का प्रयोग कर लेता है। यदि किसी चीज की आदत पड़ गई और वह आसानी से नहीं मिलती है तो व्यक्ति उसे चुराने लग जाता है । यह अतृप्ति चोरी की आदत पैदा करती है । जो चोरी करेगा, उसे झूठ बोलना पड़ेगा। वह माया-मृषा का प्रयोग करेगा। झूठ को छिपाने के लिए माया को रचना पड़ेगा। उत्तराध्ययन में भोग के इस परिणाम का मार्मिक चित्रण है- मनुष्य इतना कुछ करने पर भी दुःख से मुक्त नहीं होता
फासे अतित्ते य परिग्गहे य, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढ़ि। अतुट्टिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ।। तहाभिभूयस्स अदत्तहारिणो, फासे अतित्तस्स परिग्गहे य।
मायामुसं वड्डई लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से। सूत्रकार कहते हैं-जब व्यक्ति झूठ बोलता है तब उसके मन में पहले तनाव पैदा होता है । झूठ बोलते समय यह माया रचनी पड़ता है कि झूठ कैसे बोलूं । यह चिन्ता सताती है--कहीं झूठ पकड़ा न जाए। उसका हृदय धड़कने लगता है। झूठ बोलने के बाद मन में पश्चाताप होता है-कहीं झूठ प्रकट न हो जाए। किसी को पता न लग जाए। उससे कर्म का महान् बंध होता है । इस प्रकार अतृप्त होकर चोरी करने वाला व्यक्ति दुःखी और आश्रयहीन बन जाता है
मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पओगकाले य दुही दुरंते।
एवं अदत्ताणि समाययंतो, फासे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो। लोभ और आसक्ति के साथ दुःख की एक परंपरा जुड़ी हुई है । त्याग इसलिए है कि हम इस दुःख की परंपरा से बच सकें । त्याग सुख छुड़ाने के लिए नहीं, दुःख से बचाने के लिए है। यदि यह बात समझ में आ जाए तो धर्म का सही मूल्यांकन हो सकता है और यह बात समझ में आ सकती है-- विषय को नहीं विकार और दुःख को दूर करो। यदि हम थोड़ा-थोड़ा त्याग करना सीख जाएं, जिससे जीवन
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