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१२४ । मुक्त भोग की समस्या और ब्रह्मचर्य सचाई बता रहा है-थोड़े से सुख के लिए ढेर सारे दुःखों को मत बुलाओ। यह त्याग का मार्ग दुःख से बचाया जाए। धर्म के लोगों ने यह नया रास्ता खोजा था-आदमी को दुःख से बचाया जाए। धर्म यह नहीं कहता-सब कुछ त्याग दो, सब कुछ छोड़ दो। वह यह कहता है-तुम इन सबके बीच रहते हुए भी भोगों में लिप्त न बनो। कमल की तरह निर्लिप्त रहो। इतने स्वतंत्र और अलिप्त रहो कि लेप न लगे, आसक्ति न बढ़े। यदि व्यक्ति इतना समझ लेता है तो वह जीने की कला को समझ लेता है। अतृप्ति का दौर
हम उत्तराध्ययन का बत्तीसवां अध्ययन पढ़ें। उसमें इस विषय को अत्यन्त गहराई और सूक्ष्मता से छुआ गया है। हम भोजन का ही उदाहरण लें । व्यक्ति ने किसी चीज को खाया। खाने में कोई विशेष बात नहीं है । जीवन-निर्वाह के लिए खाना भी आवश्यक है पर जिस चीज को खाया, उसके साथ एक आसक्ति बन गई। आसक्ति एक बंधन है। उसकी पूर्ति के लिए हिंसा करनी पड़ती है । हिंसा के द्वारा उस चीज का उत्पादन करना पड़ता है, रक्षण, संग्रह और व्यापार करना पड़ता है। उसका वियोग न हो, इसकी चिन्ता बनी रहती है और उसके उपभोग काल में भी तृप्ति नहीं मिलती। इसलिए उसमें सुख कहां है ?
फासाणुवाएण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसनिओगे। .
वए विओगे य कहिं सुहंसे ? संभोगकाले य अतित्तिलाभे॥ इस प्रसंग में आगे देखें। क्या व्यक्ति खाकर तृप्त होता है? आदमी कहता है-मैं तृप्त हो गया पर दो-तीन घंटे बीतने के बाद उसे भूख फिर सताने लग जाती है । अमीर हो या गरीब, कोई भी तृप्त नहीं होता । व्यक्ति सुबह नाश्ता करता है, तृप्त हो जाता है। दोपहर का समय आता है, फिर अतृप्ति उभर आती है । आग कभी तृप्त नहीं होती । उसमें कितना ही ईंधन डालें, वह तृप्त नहीं होगी। आदमी भी कभी तृप्त होता ही नहीं है । चंदा देने वाले लोग इस सचाई को जानते हैं।
कुछ लोग चंदा मांगने के लिए सेठ साहब के घर आए। सेठ से प्रार्थना की- आप कुछ चंदा दें अकाल राहत कार्यों के लिए । सेठ बोला- भाई साहब ! क्या आपने आज का समाचार पत्र नहीं पढ़ा? उसमें भारी वर्षा की घोषणा की गई है।
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