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________________ विषय को नहीं, विकार को जीतें । १२३ ही है। लोग यह सुनकर अवाक् रह गए। उन्होंने विस्मय से पूछा- यह कैसे कह हे हो तुम? चोर ने कहा--जब मैं छोटा बच्चा था, स्कूल में पढ़ता था। तब दो पढ़िया पेंसिलें चुरा कर लाया। मैंने वे मां को दिखाई। मां ने मेरी पीठ थपथपाते हुए शाबाशी दी । मेरा साहस बढ़ा । मैं चोरी करता रहा, मां शाबाशी और प्रोत्साहन देती रही । उसका यह परिणाम आया है कि मुझे फांसी के फंदे में लटकना पड़ हा है। यदि मां मुझे पहले ही दिन टोक देती, रोक देती और यह कहती-बेटा ! तुमने यह अच्छा काम नहीं किया, मेरे दूध को लजाया है तो मैं कभी चोर नहीं बनता, मुझे ऐसी मौत नही मरना पड़ता। सण का सुख : वर्षों का दुःख ___ दुनिया भोगों को प्रोत्साहन देती है, समर्थन देती है किन्तु जब भोगों का परिणाम भुगतना पड़ता है तब वह किसे अच्छा लगता है ? उस समय भोग की प्रेरणा देने चाला अच्छा लगेगा या त्याग की प्रेरणा देने वाला? इस बिन्दु पर यह चिन्तन उभरता ई-धर्म का मार्ग एक अलौकिक पथ है, त्याग का पथ है । यह पहले अच्छा न भी लगे पर परिणाम में बहुत अच्छा लगता है। इस तथ्य के संदर्भ में यह सच है--जो कवल भोग की बात को लेकर पलता है या चलता है, वह दुःख की ओर ले जाता है । उस मार्ग में थोड़ा सुख है और बहुत दुःख । इस सचाई का प्रत्येक व्यक्ति अनुभव कर सकता है। एक आदमी कुछ दिनों के अंतराल से दर्शन करने आया। मैंने पूछा--भाई ! श्या बात है? उसने कहा-महाराज ! मैं कुछ अस्वस्थ हो गया था। मेरे आम की बीमारी रहती है, पेट ठीक नहीं रहता । एक दिन भोज में कुछ ज्यादा खा लिया इसलिए वह बीमारी उग्र बन गई। 'तुमने ज्यादा क्यों खाया।' 'महाराज ! क्या करें? हम सामाजिक प्राणी है, हमें मनुहार माननी पड़ती है और जब मनभावन चीज सामने आ जाती है तब रहा भी नहीं जाता। उस समय खाना ही अच्छा लगता है।' यह वर्तमान क्षण का सुख कितना दुःख देता है। हम यह सोचें- धार्मिक व्यक्ति कुछ छुड़ा रहा है, त्याग करवा रहा है, वह गलत रास्ते पर नहीं ले जा रहा है । वह दुःखों की ओर नहीं ले जा रहा है किन्तु महान् दुःख से बचा रहा है । वह यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003071
Book TitleMukta Bhog ki Samasya aur Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1999
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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