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विषय को नहीं, विकार को जीतें / १२१ बादाम का सरबत पीओ, जिससे दिमाग तर रहे, शरीर बिलकुल स्वस्थ रहे । यह बात युवक को प्रिय लगती है । यदि उसे कहा जाए तुम उपवास करो, ज्यादा ठण्डी चीजें मत खाओ । वातानुकूलन में रहोगे तो तुम्हारी सहिष्णुता नष्ट होती चली जाएगी । यह बात उसे अच्छी नहीं लगेगी। एक उसे सुख देने वाली बात है और दूसरी उसे कठिनाई में डालने वाली बात है । पहली बात अच्छी लगती है, सीधी गले उतर जाती है, दूसरी बात गले में अटक जाती है I
साधु-संत लोगों को त्याग की प्रेरणा देते हैं। क्या वे सचमुच दु:ख की ओर ले जा रहे हैं? इस बिन्दु पर हम सोचें, तो यह प्रश्न समाहित होगा । बहुत बार ऐसा होता है - लगता है कि अमुक बात दुःख की ओर ले जा रही है और निष्कर्ष यह आता है - वह सुख की ओर ले जा रही है। ऐसा लगता है - यह मार्ग सुख की ओर ले जा रहा है किन्तु निष्कर्ष यह आता है - वह दुःख की ओर ले जा रहा है। मां छोटे बच्चे को स्नान करती हैं । उसे स्नान कराना बड़ा मुश्किल होता है । बच्चा रोने-चिल्लाने लग जाता है । वह सोचता है -- मां मुझे कितना कष्ट दे रही । माता-पिता बच्चे को स्कूल भेजते हैं। बच्चे को प्रारंभ में कितना कठिन लगता है ! वह सोचता है—स्कूल में क्या जाना है मानो नरक में ही जाना है ।
पुत्र ने कहा-मां ! मैं स्कूल नहीं जाऊंगा ।
'क्यों ? क्या तुम्हारे पास पेंसिल नहीं है ? ' 'पेंसिल तो है ।'
'कापी और पुस्तक नहीं है ? '
'वे भी हैं । '
'तो क्या नहीं है ?'.
'मां ! सब कुछ है पर मैं स्कूल जाना नहीं चाहता, मुझे वहां जाना अच्छा नहीं लगता ।'
बहुत सारे काम ऐसे हैं, जो आपातकाल में बड़े सुख देने वाले लगते हैं पर परिणामकाल में वैसे नहीं होते। बहुत सारे काम ऐसे हैं, जो आपातकाल में दु:खद लगते हैं पर परिणामकाल सुखद होते हैं । धार्मिक लोगों ने यह विवेक किया, इस सचाई को पकड़ा और काल को दो भागों में बांट दिया- आपातकाल और परिणाम - काल । प्रवृत्ति के दो प्रकार बन गए - आपातभद्र और परिणामभद्र | 'आपातभद्र वह होता है, जो पहले बहुत अच्छा लगता है किन्तु उसका परिणाम अच्छा
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