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१२० । मुक्त भोग की समस्या और ब्रह्मचर्य दो छोर बन गए—एक भोग का और दूसरा त्याग का । इन दोनों के बीच खड़ा मनुष्य क्या करे ? भोग करे या त्याग? ये दो किनारे हैं । दो किनारों के बीच पानी का प्रवाह चलता है। हम किनारों को पकड़ें या बीच में बह रहे पानी को? यदि इन्द्रियों से काम न लें तो जीवन की यात्रा नहीं चलेगी। इस समस्या के संदर्भ में कहा गया—विवेक से काम लो, विवेक से निर्णय लो। यह विवेक प्रस्तुत हुआ-तुम इन्द्रियों से काम लेते हो क्योंकि तुम्हें सुख चाहिए । जब-जब व्यक्ति आंख से अच्छा रूप देखता है, कान से अच्छा शब्द सुनता है, जीभ से अच्छी चीज चखता है, नाक से अच्छी सुगंध लेता है तब-तब उसे सुख मिलता है । इस दृष्टि से विचार करें तो लौकिक मार्ग, संसार का मार्ग अच्छा लगता है। व्यक्ति सोचता है— छोड़ना दुःख है। धर्म कहता है-यह भी छोड़ दो, वह भी छोड़ दो। यह दुःख त्या मार्ग है । सुख का मार्ग है भोग । यह एक दृष्टिकोण है। त्याग क्यों?
एक प्रश्न आता है-धार्मिक लोगों की यह क्या समझदारी है ? जो आदमी सुख भोग रहा है, उसे छुड़ाना क्या समझदारी है ? परोसी हुई थाली को ठुकरा कर आगे की आस करना कौनसी समझदारी है ? पांचों इन्द्रियों को भोग भोगने में आदमी को सुख मिलता है। उस स्थिति में आलौकिक मार्ग/मोक्ष मार्ग कहता है—इनको छोड़ो, त्याग करो, क्या यह सुख छुड़ाने की बात नहीं है? क्या यह अस्वाभाविक बात नहीं है ? किसी ने गाली दी, गुस्सा आया, उस समय धर्म कहता है-तुम क्षमा करो। गुस्सा करना स्वाभाविक बात है, सारी दुनिया कर रही है। धर्म के लोग जो कह रहे हैं, वह अस्वाभाविक बात है, अलौकिक बात है। क्या सुखों को छुड़ाने की बात सही है ? इस प्रश्न को भारतीय और पाश्चात्य चिन्तकों ने भी उभारा-इस त्याग की बात ने क्या जीवन को निराशावादी और पलायनवादी नहीं बना दिया है ? क्या इस वैराग्यवादी धारा ने मनुष्य को सारे सुखों से वंचित नहीं कर दिया है ? एक छोटे लड़के को साधु बना देते हैं। उसने क्या देखा, क्या भोगा? बेचारे के सुख को छीन लिया । क्या धार्मिक लोगों का कर्तव्य यही है कि वे लोगों को सुख से वंचित करते चले जाएं?.. आपातभद्र : परिणामविरस
गर्मी का मौसम है। एक युवक से कहा जाए-भाई ! ठण्डा पेय पीओ, आईसक्रीम खाओ, वातानुकूलित मकान में रहो । कार में एयर कंडीशनर लगा लो,
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