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११८ / मुक्त भोग की समस्या और ब्रह्मचर्य
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व्यर्थ है । यदि संभव है तो कैसे हैं ? वस्तुतः कला यही है — हजारों लोग इकट्ठे हों और कोलाहल न हो । धर्म की बात सुनें और नींद न आए, हवा-पानी आए और रेत न आए । यह संभव है और इसका नाम है कला । मनुष्य बुद्धिमान् प्राणी है। उसने इस कला को सीखा है, बहुत उपाय खोजे हैं। मनुष्य ने चलनी इसीलिए बनाई कि पानी छन पात्र में जाए और न जाने की चीज ऊपर रह जाए। लोग कुण्ड या हौज बनाते हैं । उसमें पानी जाने के लिए नाला रखते हैं । उस नाले से केवल पानी ही जाए, इसके लिए जाली लगा देते हैं । जाली से छनकर पानी चला जाता है और दूसरे तत्त्व बाहर ही रह जाते हैं। इसका नाम है विवेक । हंस- विवेक
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आदमी ने पृथक्करण करना सीखा है। यदि एक शब्द में कहा जाए तो सबसे बड़ी कला है विवेक, विवेचन की शक्ति, छानने की शक्ति । प्रसिद्ध शब्द हैं हंस-विवेक । हंस में विवेक होता है । उसकी चोंच में अम्लता होती है। दूध में चोंच डालते ही पानी अलग हो जाता है और दूध अलग। दूध को नींबू का सत् डालकर फाडा जाता है । छन्ना अलग हो जाता है और पानी अलग। यह हमारा विवेक ही है कि सारे विषयों के बीच, कलह और कोलाहल के बीच, झगड़े और समस्याओं के बीच रहते हुए भी हम उनसे दूर रह सकते हैं। हम एकांत में कहीं जा नहीं सकते । वस्तुतः एकांत कहीं है ही नहीं । कहा जाता था— हिमालय पर चले जाओ, एकांतवास हो जाएगा। आज हिमालय में भी एकांत कहां रहा ? क्या वहां अणुधूली नहीं पहुंची है ? आज एकांत जैसा कुछ रहा ही नहीं है । गंगा का पानी दूषित हो गया, हिमालय भी दूषित हो गया, आकाश और पृथ्वी– सब कुछ दूषित बनते जा रहे हैं। इस स्थिति में पलायन करने की बात नहीं सोचनी है । (हम जीवन की कला को सीखें और वह कला है विवेक । हम ऐसी शक्ति जगाएं, जो विवेचन कर सके, छान सके। कोई भी चीज सीधी न जाए, छन-छन कर जाए, विशुद्ध रूप में जाए। जब सब कुछ भीतर चला जाता है तब समस्या पैदा हो जाती है और उसे दूर करने के लिए विश्लेषक तत्त्व का उपयोग करना होता है । जहां गावों में कच्चे कुओं का पानी आता है वहां पानी के साथ रेत घुलमिल जाती है ।छानने के बावजूद पानी गंदला और धुंधला रह जाता है । उस धुंधलेपन को मिटाने के लिए पानी में फिटकरी का प्रयोग किया जाता है। फिटकरी के प्रयोग से रेत नीचे जम जाती है और पानी स्वच्छ हो जाता है, नितर कर साफ हो जाता है, पीने योग्य बन जाता है।
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