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________________ इन्द्रिय-संयम का प्रश्न / १०९ शिष्य का प्रश्न सम्यक् था । धर्म के लोगों ने इन्द्रियों को शत्रु माना है इसलिए इस प्रश्न को अस्वाभाविक भी नहीं कहा जा सकता। आचार्य ने कहा-वत्स ! तुम ध्यान से सुनो। इन्द्रियां मनुष्य की शत्रु नहीं हैं, ज्ञान हैं। इनके द्वारा उसका ज्ञान स्पष्ट होता है। मन का ज्ञान बाद में होता है। सबसे पहला सर्व सुलभ ज्ञान है—इन्द्रिय-ज्ञान । दुनिया भर के जितने भी प्राणी हैं, सब इन्द्रिय वाले हैं। अविकसित जीवों में मन नहीं है । एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय-इन प्राणियों में मन नहीं है किन्तु इन्द्रियां सबको प्राप्त हैं। काल समवर्ती है। वह सब पर समान रूप से वर्तता है। किसी का पक्षपात नहीं करता। इन्द्रियां भी समवर्ती हैं। सभी प्राणियों के पास हैं। संसार का एक भी प्राणी ऐसा नहीं है, जिसे इन्द्रिय सुलभ न हो। इन्द्रिय का यह स्वरूप प्रत्येक व्यक्ति के लिए परम उपयोगी है। शत्रुता का कारण ___ शिष्य बोला—गुरुदेव ! एक ओर आप इन्द्रियों को परम उपयोगी बता रहे हैं, दूसरी ओर उन्हें शत्रु कहा जा रहा है। ___आचार्य ने कहा-महामति शिष्य ! इन्द्रियां जब राग-द्वेष के प्रभाव से आविष्ट होती हैं, तभी शत्रु कहलाती हैं । राग-द्वेष मुक्त इन्द्रियां शत्रु नहीं हैं। आविष्टानि यदा तानि, रागद्वेषप्रभावतः । तदा तानि विपक्षाणि, नेतराणि महामते ! ।। - जब गंगा के निर्मल पानी में फैक्ट्रियों का दूषित कचरा मिलता है वह पानी भी दूषित हो जाता है । जब इन्द्रिय-ज्ञान की निर्मल धारा में राग और द्वेष का कचरा मिल जाता है, उस अवस्था में वे शत्रु बन जाती हैं। यह बात अध्यात्म की भूमिका पर कही जा सकती है। इन्द्रियां एक साधक के लिए अहितकर भी हैं और शत्रुता का काम भी करती हैं। जब इनमें मूर्छा का मिश्रण हो जाता है, राग और द्वेष का मिश्रण हो जाता है, तब अध्यात्म विकास में बाधा उत्पन्न हो जाती है। जब मोह की गन्दी नाली इन्द्रियों के साथ जुड़ जाती है, इन्द्रियां उससे आविष्ट हो जाती हैं तब वे चित्त की निर्मल धारा को कलुषित कर देती हैं। दर्शन और अध्यात्म के क्षेत्र में यह एक बहुत बड़ा विषय रहा है। इस विषय पर गहन अध्ययन करने वालों के लिए आचार्य भिक्षु का एक ग्रन्थ 'इन्द्रियवादी की चौपाई' बहुत उपयोगी है। इन्द्रियों की वास्तविकता क्या है ? इन्हें शत्रु क्यों माना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003071
Book TitleMukta Bhog ki Samasya aur Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1999
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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