SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०६ / मुक्त भोग की समस्या और ब्रह्मचर्य विश्वास होना ही धर्म की श्रद्धा है। जब तक यह इन्द्रिय चेतना या अतीन्द्रिय चेतना का भेद समझ में नहीं आएगा तब तक सम्यक्त्व प्राप्त नहीं होगा, श्रद्धा प्राप्त नहीं होगी। कभी-कभी प्रश्न उभरता है-आस्तिक दर्शन नास्तिक दर्शन का खण्डन करते हैं, चार्वाक दर्शन को अच्छा नहीं मानते । उसका मजाक भी उड़ाते हैं, चार्वाक दर्शन की मान्यता को इस रूप में प्रस्तुत करते हैं पिब खाद च चारुलोचने, यदतीतं वरगात्र तन्न ते। न हि भीरुगतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं कलेवरम् ॥ खूब खाओ, पीओ, मौज करो। बार-बार यह जीवन थोड़े ही मिलेगा। धार्मिक भी कहते हैं बार-बार मनुष्य जीवन थोड़े ही मिलेगा ! नास्तिक भी कहेगा--जितनी मौज करनी है, करलें। यह मनुष्य का जीवन बार-बार थोड़े ही मिलेगा। दोनों तर्क एक समान हैं। सिद्धान्त की दृष्टि से कोई आस्तिक हो सकता है किन्तु व्यवहार और आचरण में कौन नास्तिक नहीं है ? इस बात की गम्भीरता में जाएं तो लगेगा-मनुष्य का आचरण और व्यवहार नास्तिक जैसा है। एक आस्तिक व्यक्ति धर्म, आत्मा, परमात्मा और कर्म फल-इन सारी बातों को मानने वाला है किन्तु जहां इन्द्रिय सुखों का प्रश्न है, कौन आस्तिक नास्तिक से पीछे है ? आगे भी हो सकता है । वासनाजन्य सुख में कोई आस्तिक नास्तिक से पीछे नहीं है। कहा जा सकता है-विचारधारा में कोई आस्तिक हो सकता है किन्तु सिक्का नास्तिक का ही चल रहा है। एकला चलो उत्तराध्ययन सूत्र जीवन दर्शन का सूत्र है । उसमें जीवन का बहुत सुन्दर दर्शन दिया गया है-तुम अपने दर्शन को, दृष्टि को साफ करो। सबकी गति, मेरी गति इस प्रवाह में मत जाओ, इन्द्रियों के साथ मत चलो, अकेला चलने का सूत्र खोजो। सबके साथ चलते हुए अकेले चलो। आचार्य भिक्षु ने मार्मिक शब्दों में कहा—गण में रहूं निरदाव अकेलो- समूह के बीच रहता हुआ भी व्यक्ति अकेला रहे, 'एकला चलो' इस चिन्तनधारा को मानकर चले, 'सबकी गति: मेरी गति' इन्द्रिय की धारा में पनपने वाले इस चिन्तन से परे रहे । उसे अपना स्वतन्त्र और मौलिक चिन्तन करना है, भीड़ का साथी नहीं होना है, भीड़ से अलग रहकर अपने स्वतन्त्र अस्तित्व और व्यक्तित्व को बनाए रखना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003071
Book TitleMukta Bhog ki Samasya aur Bramhacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1999
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy