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चिन्तन इन्द्रिय-चेतना का / १०५ प्रकार का व्यवहार करना । इस परिधि में सोचा जाए तो धर्म की बात समझ में आएगी । धर्म क्यों करना चाहिए ? धर्म को कहां से पकड़ा जाए ? यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। धर्म का आदि बिन्दु है - राग और द्वेष से परे होना । इन्द्रियातीत चेतना में जीने वाला सबसे पहले राग पर चोट करेगा, द्वेष पर चोट करेगा। राग और द्वेष पर चोट करने का अर्थ है - समस्या की मूल जड़ पर प्रहार करना ।
मूल्य चोट का नहीं है
एक कहानी बड़ी मार्मिक है । मोटर खराब हो गई । जंगल का रास्ता था । स्वयं मालिक ड्राइव कर रहा था । अब जंगल में ठीक कैसे हो ? वह गाड़ी से उतरकर इधर-उधर थोड़ी दूर घूमा । एक मिस्त्री बैठा काम कर रहा था। उसने कहा- 'भाई ! मेरी मोटर ठीक कर दो ?'
मिस्त्री ने गाड़ी देखकर कहा - 'सौ रुपये लूंगा ।'
जंगल का मामला था । मालिक ने सौ रुपये दे दिए। मिस्त्री ने हथौड़ा लिया, एक स्थान पर एक चोट मारी और कार स्टार्ट हो गई, चलने लगी ।
मालिक ने मिस्त्री से कहा - 'तुमने मेरे साथ न्याय तो नहीं किया। एक चोट दी और सौ रुपये ऐंठ लिए। यह तो उचित नहीं हुआ।'
'बाबूजी ? आप समझे नहीं । मैंने इस चोट का मात्र एक रुपया ही लिया
है ।'
'बाकी निन्यानवें रुपये किस बात के ?'
'बाबूजी ! चोट कहां करनी चाहिए, इस बात के निन्यानवें रुपये हैं ।'
पहला प्रश्न है— चोट कहां करनी चाहिए ? इन्द्रियातीत चेतना में जीने वाले व्यक्ति के लिए मूर्च्छा एक पारमार्थिक तत्त्व है । उसे सबसे पहले मूर्च्छा पर चोट करनी चाहिए । व्यक्ति को इन्द्रियों से काम लेना है, आंख से देखना है, कान से सुनना है, जीभ से चखना है पर उनके साथ जो मूर्च्छा जुड़ी हुई है उससे मुक्त होना है । जब मूर्च्छा पर प्रहार होगा, व्यक्ति इन्द्रियातीत चेतना में जीने में विश्वास करेगा और वही धर्म का आदि-बिन्दु होगा ।
सिक्का नास्तिक का ही चल रहा है
चिंतन की इन दोनों धाराओं के बीच में एक भेद-रेखा है । उसे समझना आवश्यक है । एक वह खेमा है, जो इन्द्रिय चेतना में विश्वास करता है और दूसरा वह खेमा है, जो अतीन्द्रिय चेतना में विश्वास करता है । अतीन्द्रिय चेतना में
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