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१०४ । मुक्त भोग की समस्या और ब्रह्मचर्य इन्द्रियातीत चेतना
दर्शन की दूसरी धारा है इन्द्रियातीत चेतना की धारा । इन्द्रियातीत चेतना से सम्पन्न व्यक्ति का सारा दर्शन बदल जाएगा। वह कभी नहीं कहेगा-जो सबका होगा, वह मुझे भी हो जाएगा। वह अकेला सोचेगा। बहुत बड़े लेखकों और चिन्तकों ने स्वर दिया ‘एकला चलो रे ।' अकेला होने का मतलब है-बहुत लोग क्या कर रहे हैं, समूह क्या कर रहा है, इस तर्क के जाल से निकल जाना। किसी से कहा जाए--यह काम अच्छा नहीं है, अप्रामाणिकता का है ! उत्तर मिलेगा-क्या मैं अकेला कर रहा हूं, सभी करते हैं। यह तर्क एक कवच का काम करता है। सारी बुराइयों के लिए यह तर्क त्राण बना हुआ है। इस तर्क की ओट में व्यक्ति अपने आपको सुरक्षित कर लेता है, एक लोह कवच पहन लेता है। जो व्यक्ति इन्द्रियातीत चेतना में जीता है, वह कभी ऐसे तर्कों की पनाह नहीं लेता, बुरे तर्क की शरण में नहीं जाता। उसका चिंतन बिलकुल दूसरे प्रकार का हो जाता है।
धर्म का मूल बिन्दु है-इन्द्रियातीत चेतना का विकास । इन्द्रियों की बात उससे नीचे रह जाती है । जब तक यह बात समझ में नहीं आती तब तक धर्म की बात समझ में आ ही नहीं सकती। धर्म कहता है---खाने का संयम करो । इन्द्रिय चेतना में जीने वाला क्यों कहेगा-खाने का संयम करो, प्राप्त को छोड़ो । एक गरीब आदमी, जिसे खाना मिलता ही नहीं है, वह क्या संयम करेगा? जिसे अच्छा भोजन मिलता है, ठंडा पेय मिलता है, मन को लुभाने वाली सारी वस्तुएं मिलती हैं, यदि उसे कहा जाए-विगय का वर्जन करो, रस परिहार करो, एकासन करो। उसका उत्तर होगा-क्यों उपवास किया जाये ? किसलिए करें तपस्या? इच्छित पदार्थ मिल रहा है, उसे किसलिए छोड़ा जाए? यह तर्क इन्द्रिय चेतना में जीने वाले व्यक्ति का तर्क है । अतीन्द्रिय चेतना में जीने वाला संयम की बात सोचेगा, उन पदार्थों और विषयों को कम करने की बात सोचेगा। अर्थ अतीन्द्रिय चेतना का ___आज अतीन्द्रिय चेतना को अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान, केवलज्ञान आदि के साथ जोड़ा जा रहा है । अतीन्द्रिय चेतना का मतलब यह नहीं है कि अवधिज्ञान पैदा हो जाए, केवलज्ञान पैदा हो जाए। अतीन्द्रिय चेतना का अर्थ है-इन्द्रिय आसक्ति से ऊपर उठकर चलना, सोचना और व्यवहार करना । इन्द्रिय की सीमा में जो आचरण और व्यवहार होता है उससे भिन्न प्रकार का चिंतन, भिन्न प्रकार का आचरण और भिन्न
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